SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 409
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [३६३ .................. सूत्र संख्या २-७६ से 'र' का लोप; २.६७ से शेष 'प' को वैकल्पिक रूप से द्वित्स्य 'पप' की प्राप्ति; ५-१७७ से द्वितीय 'क' का लोपः ५-५८० से लोप हुए 'क' में से शेष रहे, हुग. 'अ' को 'य' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त पुल्लिा में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की माप्ति होकर कम से कुसुम-प्पयरो और कुसुम ययरों दोनों रूपों को सिद्धि हो जाते हैं। देव-स्तुतिः संस्कृत मप है। इसके प्राकृत रूप देव स्थुई और देव-थुई होते हैं । इनमें सूत्र संख्या २-४५ से 'स्त्' के स्थान पर 'व' की प्रानि; २-६७ से प्राप्त 'थ् को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'थथ की प्राप्ति; २-१० से प्राप्त पूर्व 'च' को 'तू' की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'त्' का लोप और ३-१६ से प्रबमा विभक्ति के एक वचन में ह्रस्व इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई की प्राप्ति होकर क्रम से देवत्थुई और देव-शुई दोनों रूपों को सिद्धि हो जाती है। हर-स्कंदी द्विवचनान्त संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप हर खन्दा और हर-खन्दा होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-४ से संयुक्त व्यन्जन 'स्क' के स्थान पर 'न' को प्राप्ति, २०६७ से प्राप्त 'ख' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'ख़ख' की प्राप्ति, २-१० से प्राप्त पूर्व 'स्' को 'क' को प्राप्ति; ३-१३० म संस्कृत शब्दांत द्विवचन के स्थान पर बहुवचन की प्राप्ति होने से सूत्र संख्या ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहु वचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त 'जस्' प्रत्यय का लोप और ३-१२ से पूर्व में प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के कारण से अन्त्य व्यजन 'इ' में स्थित ह्रस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'या' की प्राप्नि होकर कम से हर-कखन्दा और हर-खन्दा दोनों रूपो की सिद्धि हो जाती है। आलान-स्तम्भः संस्कृत रूप है । इसके प्राकत रूप श्राणाल खम्भो और प्राणाल-खम्भा होत हैं। इनमें सूत्र संख्या २-११७ से 'ल' और 'न' का परस्पर में व्यत्यय अर्थात् उलट-पुलट रूप से पारस्परिक स्थान परिवर्तन; १.२२८ से 'न' का 'ण'; -८ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'ख' का आदेश; -६७ से प्राप्त 'ख' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'सख' की प्राप्ति, २-६० में प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क' की प्राप्तिा और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कम से आणाल रखम्भों और आणाल-खम्भा दोनों पों की सिद्धि हो जाती है। स-पिपासः संस्कृत विशेषण रूप है । इसके प्राकृत रूप सरिपवासो और सपिवासी होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-६७ से प्रथम 'प' वर्ण को विकल्प से द्वित्व 'प' की प्राप्ति; १-२३१ से द्वितीय प' वर्ग के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रमसे सपिवासो और सपिचासी होनों रूरों की सिद्धि हो जाती है। बद्ध-फलः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप बद्ध-फलो और बद्ध-फलो होते हैं । इन में सूत्र
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy