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________________ ६६ ] * प्राकृत व्याकरण * सन्तः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप सन्तो होता है । इसमें सूत्र-संहया १-३७ से विसा के पान पर 'ओ' आवेश होकर सन्तो रूप सिद्ध हो जाता है। फुतः संस्कृत शब्द है । इसका शोरसेनी भाषा में कटो प होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२६० से 'त' का 'व'; और १-३७ से विसर्ग के स्थान पर 'ओ' आदेश होकर छुड़ो रूप सिद्ध हो जाता है । निष्प्रती अोत्परी माल्य-स्थोत्रा ॥ १-३८ ॥ निर प्रति इत्येतो माल्य शब्द स्थाधातौ च पर यथा संख्यम् ओत् परि इत्येवं रूपों वा भवतः । अभेदनिर्देशः सर्वादेशार्थः । श्रीमालं । निम्मल्लं ।। ओमालयं वहइ । परिहा । पइट्ठा । परिद्विअं पइट्टि ।। अर्थ:...माल्य शब्द के साथ में पवि निर उपसर्ग आवे तो निर उपसर्ग के स्थान पर आवेश रूप से विकल्प से 'भो' होता है । तथा स्था धातु के साथ में यदि 'प्रति' उपसर्ग आवे तो 'प्रति' उपसर्ग के स्थान पर मावेश रूप से जिकरुप से परि' होता है। इस सूत्र में को उपसर्गों को जो बात एक ही साथ कही गई है। इसका कारण यह है कि संपूर्ण उपसर्ग के स्थान पर आदेश की प्राप्ति होती है। जैसे-निर्मात्पम् का औमालं ओर निभ्मल्ल । प्रतिष्ठा का परिट्टा और पइट्ठा प्रतिष्ठितम् का परिदिठा और पाठ। निर्माल्यम् संस्कृत शब है। इसके प्राकृत रूप ओमास और निम्मल्लं वोनों होते हैं। इसमें सूत्र-संख्या १-३८ से विकल्प से निर' का 'भो'; २-७८ से 'म्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसक लिंग में 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर ओमालं रूप सिम होता है। द्वितीय रूप में १.८४ से 'मा' में स्थित 'दा' का 'अ'; २-७९ से 'र' का लोप; २.८९ से 'म' का विश्व 'मम'; २-७८ से 'म्' का लोप; २-८९ से 'स' का हित्व 'लल'; ३-२५ से प्रथमा के एक सचम में नपुसकलिंग में 'म' प्रत्यय की प्राप्ति ; और १.२३ से 'म् का अनुस्वारहोकर निम्मल्लं रूप सिद्ध हो जाता है। निर्माल्य कम् संस्कृत शम है । इसका प्राकृत रूप ओमालयं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-३८ से (विकल्प से) 'मिर्' का 'ओ'; २-७८ से '' का लोप; १-१७७ से 'क' का लोप; १.१८० से 'क' के 'अ' का 'य'; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से 'म' का अनुस्वार होकर ओमालयं कप सिद्ध हो जाता है। वहति संस्कृत धातु रूप है । इसका प्राकृत रूप बहा होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१३९ में वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर '' होकर बहड़ रूप सिद्ध हो जाता है। प्रतिष्ठा संस्कृत शाम्य है । इसके प्राकृत रूप परिष्टुः और पइट्ठा होते हैं। इसमें सत्र संख्या १-३८ से 'प्रति' के स्थान पर विकल्प से परि' आदेश; २.७७ मे 'व' का लोप; २-८९ से '8' का द्वित्व 'छ', २-९० से
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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