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________________ - प्राकृत व्याकरण स्थान पर प्राकृत में 'उच्च' आदेश की प्राप्ति होकर 'अ' अव्यय रूप सिद्ध हो जाता है। निश्चल-निष्यन्दा संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप निच्चल-निफदा होता है । इसमें सूत्र संख्या २-७७ से प्रथम 'श' का लोप; २-८८ से लोप हुए 'श् के पश्चात शेष रहे हुए 'च' को द्वित्व 'च' की प्राप्ति; २-५३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ए' के स्थान पर 'फ की प्राप्ति; २.८८. से आदेश प्राप्त 'फ' को द्वित्व 'फ्फ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व "फ्' के स्थान पर प्' को प्राप्ति; और १-२५ से हलन्त न' के स्थान पर पूर्वस्थ , वर्ण पर अटादार की प्राप्ति होगर निचल-निष्पंदा रूप सिद्ध हो जाता है। पिसिनी-पत्रे संस्कृत सप्तम्यन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप भिसिणी-पत्रांमि होता है। इस शब्द-समूह में से 'मिसिणी' रूप की मिद्धि सत्र संख्या १-२३८ में की गई है। शेष 'पसमि' में सूत्र संख्या २-७८ से 'र' का लोप; -८६ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'त' के स्थान पर द्वित्व 'श' की प्राप्ति; ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एक वचन में अकारान्त में संस्कृत प्रत्यय 'जि' के स्थानीय रूप 'ए' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ को वृत्ति से हलन्त प्रत्ययस्थ 'म्' का अनुस्वार होकर मिसिणी-पत्तमि रूप सिद्ध हो जाता है। राजते संस्कृत अकर्मक क्रिया पद का रूप है । इसका प्राकृत रूप रेहद होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-१०० से संस्कृत धातु 'राज' के स्थान पर प्राकृत में 'रेह' आदेश; ४-२३४ से प्राप्त हलन्त धातु 'रेह' में विकारण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१३६ से वर्तमानकोल के एक वचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रेहड़ रूप सिद्ध हो जाता है। बलाका संस्कृत भप है। इसका प्राकृत रूप बलात्रा होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'क' का लोप और १-११ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में आकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृतीय प्रत्यय 'मि' के स्थानीय रूप रूप विसर्ग व्यञ्जन का लोप होकर बलाआ रूप सिद्ध हो जाता है। "निर्मल-मरकत-भाजन प्रतिष्ठित संस्कृत समासात्मक विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निम्मल-मरगय-भायण-परिट्रिया' होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-७६ से रेफ रूप प्रथम 'र' का लोप; २-८६ से लोप हुए रेफ रूप 'र' के पश्चात शेष रहे हुए (प्रथम) 'म' को द्वित्य 'मम' की प्राप्ति; ४-४४० से और १-१७७ की वृत्ति से 'क' के स्थान पर व्यत्यय रूप 'ग' की प्राप्ति; १-१७७ से प्रथम 'त' का लोप; १-१८० से लोप हुए (प्रथम) 'त' के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; १-१७७ से 'ज' का लोप; १-१०० से लोप हुए 'ज' के पश्चात शेष रहे हुए 'श्र' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; १-२२८ से द्वितीय 'न' के स्थान पर '' की प्राप्ति; ५.३८ से 'प्रति' के स्थान पर परि' श्रादेश; २-७७ से '' का लोप; २-८१. से लोप हुए 'ष' के पश्चात शेष रहे हुए '' को द्वित्व '४' की प्राप्ति, २-६० से प्राप्त पूर्व 'ठ' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; और १.१७७ से अन्त्य 'ता' में स्थित 'त' का लोप होकर संपूर्ण समासात्मक रूप 'निम्मल-मरगय भायण परिवा' सिद्ध हो जाता है।
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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