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________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [ ४६३ 'क' प्रत्यय की प्राप्ति १-१७७ मे प्राप्त 'क' का लोप और ३-११ सेप्त के एक वचन में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दुहिए रूप सिद्ध हो जाता है । सं रामदये (राम-हृदय के संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप राम-हिए होता है। इस १-१२८ से'' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति १-१७७ से 'द' कालो २-१६४ 'स्वयं' में 'क' प्रत्यय को प्राप्ति १-१७७ से प्राप्त 'कु' का लोप और ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एक वचन में अकारान्त में 'ए' प्राप्ति होकर राम-हिजच रूप सिद्ध हो जाता है। को इयं रूप को सिद्धि सूत्र संख्या १-१४ में की गई है। आलेद्र रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२४ में की गई है। बहु सस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप अर्थ होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१६४ ही वृति से मूल रूप 'बहु' में वो 'कहारों' को प्राप्तिः १-१०० से प्राप्त दोनों का सोप १-१८० ते लोप हुए द्वितीय '' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति ३२५ सेम विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुरवार होकर बहुअर्थ रूप सिद्ध हो जाता है। दने संस्कृत रूप है। इसका पेशा चित्र भाषा में बतन के रूप होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-३०७ से 'ब' के स्थान पर 'स' को प्राप्ति २-१६४ से 'स्व-अर्थ' में 'क' प्रत्यय को पाप्ति और ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एक वचन में अकारान्त में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पतन के रूप में सिद्ध हो जाता है । वदनम् संस्कृत द्वितीपाल रूप है। इसका पशाचिक भाषा में वतनक रूप होता है। 'वतनक' रूप तक की साथनिका उपरोक्त 'बहन' के 'वतन' समान ही जाना ३५ से द्वितीया विभक्ति के एक बचन में सकारात में '' प्रत्यय की प्राप्ति और १-१३ से प्राप्त 'म्' का अनुरवार होकर के रूप सिद्ध हो जाता है। समर्पित्या संस्कृत शवन्त रूप है। इसका पैदा २-७९ से ''कालो २-८९ सेप हुए के भाषा में सलून रूप होता है। इसमें सूत्र सं शेष रहे हुए 'पू' को हिपको पाप्ति ३-१४७ से मूल रूप में 'तृण' प्रत्यय की प्राप्ति होने से 'समय' धातु में स्थित अन्त्य 'अ' विरुरण प्रत्यय के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; ( नोटः--सूत्र-संख्या ४ २३९ से हलन्त धातु 'सम' में विकरण प्रश्यय 'अ' की प्राप्ति हुई है ); २-१४६ बाचक संस्कृत प्रत्यय 'स्व' के स्थान पर 'तू' प्रत्यय की प्राप्ति २-८९ प्राप्त 'ण' प्रत्यय में स्थित 'तू' के स्थान पर द्विस्व 'त्' को प्राप्ति और ४३०६ से प्राकृत भाषा के शब्दों में स्थित द के स्थान पर पेशादिक भाषा में 'न' की प्राप्ति होकर समर्पितून रूप सिद्ध हो जाता है। निर्जिताशोक-लुवेन संस्कृत तृतीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप निजि आसो परलविल्लेण होता है । इसमें सूत्र संख्या २७६ सेल टू' का कोप २-८९ से लोग हुए 'ए' के पास रहे हुए 'म्' को दिय ''
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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