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________________ * प्रिपोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [३५३ अर्थ:- संस्कृत शब्द 'आश्चर्य में स्थित 'श्च' के स्थान पर प्राप्त होने वाले 'छ' में रहे हुए 'अ' को यथा-स्थिति प्राप्त होने पर अर्थात् 'अ' स्वर का 'अ' स्वर हो रहने पर संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर क्रम से चार आदेशों को प्राप्ति होती है। वे क्रमिक श्रादेश इस प्रकार है:-रिश्र'; 'अर' 'रिज'; और रीअ ॥ इनके क्रमिक उदाहरण इस प्रकार है:-आश्चर्यम् -- अच्छरिअं अथवा अच्छअरं अथवा अच्छरिजं और अच्छरो॥ प्रश्न--'श्व' के स्थान पर प्राप्त होने वाले च्छ' में स्थित 'अ' स्वर को यया-स्थिति प्राप्त होने पर अथात् 'अ' का 'अ' ही रहने पर 'य' के स्थान पर इन उपरोक्त चार आदेशों को प्राप्ति होतो है ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तर:-यदि उपरोक्त पछ' में स्थित 'अ' को 'र' को प्राप्ति हो जाती है तो संयुक्त व्यञ्जन '' के स्थान पर ऊपर वर्णित एवं क्रम से प्राप्त होने वाले चार आदेशों की प्राप्ति नहीं होगी। यो प्रमाणित होता है कि चार आदेशों की क्रमिक प्राप्ति 'अ' की यथा स्थिति बनी रहने पर ही होती है; अन्यथा नहीं। पक्षान्तर में वर्णित छ' में स्थित 'अ' स्वर के स्थान पर 'ए' स्वर की प्राप्ति हो जाती है तो संस्कृत शब्द आश्चर्यम् का एक अन्य हो प्राकृत रूपान्तर हो जाता है। जो कि इस प्रकार है:आश्चर्यम् = अच्छेरं ।। अच्छरिअं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-७ में की गई है। __ अच्छारं, अच्छरिज, अच्छरी, और अच्छेरं रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या १-५८ में की गई है॥२-६७।। पर्यस्त-पर्याण-सौकुमायें ल्लः ॥२-६८।। एषुर्यस्य ग्लो भवति । पर्यस्तं पल्लटं पल्लत्थं । पन्लाणं । सोअमन्लं ।। पल्लको इति च पल्यंक शब्दस्य यलोपे द्वित्वे च । पलिप्रङ्को इत्यपि । चौर्य समत्वात् ॥ अर्थ:-संस्कृत शब्द पर्यस्त' 'पर्याण' और 'सौकुमार्य' में रहे हर संयुक्त व्यञ्जन 'र्य' के स्थान पर द्वित्व 'ल्न' की प्राप्ति होती है। जैसे:-पर्यस्तम् पल्लट्ट अथवा पल्लत्थं ।। पर्याणम्-पल्लाएं ॥ सौ. मार्यम् सोश्रमल्लं ।। संस्कृत शब्द पल्याङ्क का प्राकृत रूप पल्लङ्को होता है। इसमें संयुक्त व्यञ्जन 'ल्य' के स्थान पर द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति नहीं हुई है। किन्तु सुत्र संख्या २-७८ के अनुसार 'य' का लोप और २-८८ के अनुसार शेष रहे हुए 'ल' को द्वित्व 'लज' की प्राप्ति होकर पल्लको रूप बनता है । सूत्रान्तर की साधनिका से पल्यङ्कः का द्वितीय रूप पलिअको भी होता है । 'चौर्य समत्वात्' से सूत्र संख्या २.१०७ का तात्पर्य है । जिसके विधान के अनुसार संस्कृत रूप 'पल्याई' के प्राकृत रूपान्तर में हलन्त 'ल' व्यञ्जन में मागम रूप 'इ' स्यर की प्राप्ति होती है। इस प्रकार द्वित्व 'लज' की प्राप्ति के प्रति सूत्र संख्या का ध्यान रखना चाहिये । ऐसा ग्रंथकार का आदेश है।
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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