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________________ . प्राकृत व्याकरण 2 किया जाता है। 'तिरस्कार' अर्थक उदाहरण:- हरे निर्लज्ज ! हरे जिल्लज्ज अर्थात् अरे ! निर्लज्ज ! (धिकार है)। 'संभाषण' अर्थक उदाहरणः-हरे पुरुषहरे पुरिसा अथात् अरे ओ मनुष्यों : रति कलह' अर्थक पदाहरणः-हरे बहु वल्लभ ! = हरे बहु-वल्लह अर्थात् अरे ! अनेक से प्रेम करने वाला अथवा अनेक स्त्रियों के पति। 'हरे' प्राकृत-साहित्य का रूढ-अर्थक और रूद-रूपक अव्यय है; अतः साधनिका को प्रावश्यकता नहीं है। मिल संस्कृत संबोधनात्मक रूप है । इसका प्राक्त रूप णिल्लज्ज होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२२६ से 'म्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २-७६ से '' का लोप; २-८६ से लोप हुए 'र' के पश्चात शेष रहे हुए 'ल' को द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति और ३-३८ से संबोधन के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राप्तव्य प्राकृत प्रत्यय 'ओ' का वैकल्पिक रूप से लोप होकर 'जिल्लज्ज' रूप सिद्ध हो जाता है। पुरुषाः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पुरिसा होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१११ से 'उ' के स्थान 'इ' की प्राप्तिः १-२६० से 'धू' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; ३-४ से संबोधन के बहु वचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'जस' की प्राप्ति होकर प्राकृत में लोप; और ३-१२ से प्राप्त एवं सुप्त 'जस' प्रत्यय के पूर्व में स्थित 'स' के अन्स्य स्वर 'अ' को वीर्घ स्वर 'मा' की प्राप्ति होकर संबोधन बहु वचन में युरिसा रूप सिद्ध हो जाता है। . बहु-वल्लभ संस्कृत संबोधनात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप बहु-बल्लह होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'भ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति और ३-३८ से संबोधन के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राप्तव्य प्राकृत प्रत्यय 'श्री' का वैकल्पिक रूप से लोप होकर बहु-बल्लह रूप सिद्ध हो जाता है ।। २-२०२।। अो सूचना-पश्चात्तापे ॥२-२०३ ॥ ओ इति सूचना पश्चात्तापयोः प्रयोक्तव्यम् ।। सूचनायाम् । श्री अविणय-तसिन्ले ॥ पश्चात्तापे । श्री न मए छाया इति श्राए ।। विकल्पे तु उतादेशे चौकारेण सिद्धम् ॥ श्री विरएमि नहयले ॥ अर्थः-प्राकृत-साहित्य में 'यो' अव्यय 'सूचना' अर्थ में और 'पश्चात्ताप' अर्थ में प्रयुक्त होता है । 'सूचना' विषयक उदाहरण इस प्रकार है:-श्रो अविनय-तृप्तिपरे !=ी अविणय-तत्तिल्ले अर्थात अरे ! ( मैं तुम्हें सूचित करता हूँ कि ) (तू) अविनय-शील ( है ) । 'पश्चात्ताप' विषयक उदाहरण:भो! (सेव-अर्थे ) न ममा छाया एसावत्या = मो न भए छाया इतिश्राए-अति श्ररे! इतना (समय)
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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