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________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [११३ निर्णयः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'निएणो' होता है। इसमें मूत्र-मंख्या-२-७६ मे 'र' का लोप; २-८८ से 'ए' का विस्त : १.७.के '' का लो, और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय लगकर निण्णी रुप सिद्ध हो जाता है। निर्सहान संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप निस्सहाइँ होता है । इसमें सूत्र-संख्या-२-६ से 'र' का लोप; २-८८ से 'स' का द्वित्व 'रस'; ३-२६ से प्रथमा और द्वितीया के बहुवचन में नपुंसकलिंग में 'जस्' और 'शस्' प्रत्ययों के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति; और इसी सूत्र से प्रत्यय के पूर्व स्वर को दीर्घता होकर 'निस्सहााँ रूप सिद्ध हो जाता है। अंगाणि संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप प्रजाई होता है । इसमें सूत्र संख्या ३-२६ से प्रथमा और द्वितीया के बहु वचन में नपुंसक लिंग में 'जस्' और 'शम्' प्रत्ययों के स्थान पर 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति; और इसी सूत्र से प्रत्यय के पूर्व स्वर को दीर्घता होकर "अंगाई रूप सिद्ध हो जाता है। द्विन्योरुत् ॥ १-६४ ॥ द्विशब्दे नाचुपमर्गे च इत उत् भवति ॥ द्वि.। दुमत्तो । दुअआई । दुविहो । दुरेहो। दु-वयणं ॥ बहुलाधिकारात् कचित् विकल्पः ।। दु-उणो। बि.उणो । दुइयो । चिइओ ।। क्वचिन्न भवति । द्विजः । दियो । द्विरदः दिरो ॥ क्वचिद् प्रोत्वमपि । दो बयणं । नि । णुमज्जइ । गुमन्नो ।। क्वचिन्न भवति । निवडइ ॥ अर्थ:--'वि' शब्द में और नि' उपसर्ग में रही हुई 'इ' का 'उ' होता है । जैसे-द्वि के उदाहरणद्विमानः-दुमत्तो । द्विजाति:- दुआई । विविधः दुविहो । विरेफ:-दुरेहो। द्विवचनम् =दु-वयणं ।। 'बहुलम्' के अधिकार से कहीं कहीं पर 'द्वि' शबर की 'ई' कर "उ' विकल्प से भी होता है। जैसे किद्विगुणः-दु-उणो और बि-उणो । वित्तीयः = दुश्श्री और बिइयो । कहीं कहीं पर 'दि शब्द में रही हुई 'इ' में किसी भी प्रकार का कोई रूपान्तर नहीं होता है, जैसे कि-द्विजः = दियो । द्विरतः= दिरो ।। कहीं कहीं पर 'वि' शब्द में रही हुई 'इ' का 'ओ' भी होता है। जैसे कि-शि-वचनम् = दो वयणं । नि' उपसर्ग में रही हुई 'इ' का 'उ' होता है । इसके उदाहरण इस प्रकार हैं:-निमजति =णुमज्जइ । निमनः गुमन्नो । कहीं कहीं पर 'नि' उपसर्ग में रही हुई 'इ' का 'ज' नहीं होता है। जैसे-निपतति=निवडई ।। विमात्रः संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप दुमत्तो होता है । इसमें सूत्र संख्या-९-१४४ से 'व्' का लोप; १६४ से 'इ' का 'उ'; १-८४ से 'ओ' का 'अ'; २.७६ से 'र' का लोप; २८ से.'त' का द्वित्व 'स'; और ३-२ से प्रथया के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर दुमतो रूप सिद्ध हो जाता है।
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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