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________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [५०१ के साप प्राप्त प्रस्थय 'अन' के 'अ' की संधिः १-२२८ से प्राप्त मस्यय 'मन''को 'ण' की प्राप्ति; ३-११ से सप्तमो विभक्ति से एक बबन में अकारान्त में संस्कृत प्रत्यय ''ि के स्थान पर प्राकृत म ' प्रत्यय ना मादेश, में '' इत्संज्ञक होने से पूर्वस्य 'ण' के 'अ' को हरसंशा होने से ' का लोप और १-५ से इसम्त 'न' में प्राप्त प्रत्यय 'ए' को संधि होकर जूरणे रूप सिद्ध हो जाता है। 'अ' व्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१७७ में की गई है। उल्लपनशीलया संस्कृत सतोयान्त विशेषग रूप है। इसका प्राकृत रूप उल्लाविरोह होता है। इसमें माल रूप 'उल्लपनस्य-मावं इति उल्लाप होता है । तदनुसार सूत्र-संख्या १.११ से एवं समास-स्पिति होने से अन्स्प ग्यश्मन 'म्' का लोप; १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' को प्राप्ति; २-१४५ से "शोल-मर्थक र प्रस्पय को प्राप्सि; १-१० से पूर्वस्त्र 'व' में स्थित ' स्वर का अम्गे 'र' प्रत्यय की '' होने से लोप; १५ से प्राप्त हलन्त '' में आगे प्राप्त 'दर' के ।' की संधि; ३-३२ से प्राप्त पुल्लिग रूप से स्त्रीलिंग-रूप-निर्माणार्थ को' प्रत्यय को प्राप्ति, प्राप्त प्रत्यय 'डी' च 'ए' इरसंशक होने से पूर्वस्थ 'र' में स्थित 'अ' को इरसंता होने से इस '' का लोप; १-५ से हलन्त 'र' में झागे प्राप्त स्त्रीलिंग-अर्थक 'डो = प्रत्यय को संषि३-२९ से तृतीया विभक्ति के एक बबन में बी, ईकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर उल्लादिरीक रूप सिद्ध हो जाता है। व अव्यय पकी सिसि सूत्र-संख्या १.६ में की गई है। सव संस्कृत पाठ्यन्त सर्वनाम रूप है । इसका प्राकृत रूप तुहं होता है । इसमें सूब-संरूपा ३-९९ से पष्ठी विभक्ति के एक वचन में 'युस्मत' सर्वनामीय षष्ठ्यंत एक वचन रूप 'लव' के स्थान पर 'तुह' आदेश की प्राप्ति होकर तह रूप सिद्ध हो जाता है। है। ममाक्षि संस्कृत संखोषनात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप मयपिछ होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१२६ मे 'यू' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति: १-१७७ से 'ग्' का लोप: १-१८० से लोप हुए ग्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'आ' के स्थान पर 'या' को प्राप्ति; १-८४ से वीर्घ स्वर 'बा' के स्थान पर 'म' को प्राप्तिा २-३ से 'क' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति २.८९ से प्राप्त 'ए' को द्विस्व 'ए' को प्राप्सि; २-९० से प्राप्त 'पूर्व' 'ए' के स्थान पर हो प्राप्ति और ३-४२ से संबोधन के एक वचन में वीर्घ स्वर के स्थान पर इस स्वर 'इ' को प्राप्ति होदर मयाछि हप सिद्ध हो जाता है। किं रूप को सिद्धि पूत्र संख्या १.२९ में की गई है। ज्ञेयस् संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप मेअं होता है। इसमें सूझ-संख्या २.४२ से 'श' के स्थान पर 'म' की प्राप्सि; १.१४७ से 'य' का लोप; ३२५ से प्रपमा विभक्ति के एक वचन में बकारात नपुसकलिंग में अपय स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और 1-२३से प्राप्त 'म'का अस्वार होकर ण प सिद्ध हो जाता है।
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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