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________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [१७१ | अन्नुन ं । पचट्टो पउड़ो ! आवज आउ । सिर विषणा सिरो-विश्रया । मगहरं मोहरं । सररुहं सरोरुहं || अर्थः- श्रन्योन्य, प्रकोष्ठ, श्रातोय, शिरोवेदना, मनोहर और मरोरुह में रहे हुए 'ओ' का विकल्प से '' हुआ करता है; और थ होने की दशा में यदि प्राप्त हुए उस 'अ' के साथ 'क्रू' वर्ण अथवा 'त्' वर्ष जुड़ा हुआ हो तो उस 'क् श्रथवा उस 'तू' के स्थान पर 'व्' वर्ण का आदेश हो जाया करता है जैसे--अन्योन्यम् = अन्नन्नं अथवा अन्नं । प्रकोष्ट : = पषट्टो और पट्टी । श्रतो आवर्ज और उज्जं । शिरोवेदना सिर- विश्ररणा और सिरो-विणा । मनोहरम् = मरणहरं और मोहरं । सरोरुहम् = सर रुहं और सरोरुहं ॥ अन्योन्यम् संस्कृत विशेषण रूप है । इसके प्राकृत रूप अन्नन्नं और अनं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २७८ से दोनों 'य्' का लोपः २-८६ से शेष दोनों 'न' को द्वित्व 'नून' की प्राप्तिः १-१५६ से 'यो' का विकल्प से 'छा'; ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप अन्नन्नं सिद्ध हो जाता द्वितीय रूप (अन्नं) में सूत्र संख्या १-१५६ के अभाव में वैकल्पिक पक्ष होने से १-८४ से "ओ" के स्थान पर "अ" नहीं होकर "प्रो" को "उ" की प्राप्ति; और शेष सिद्धि प्रथम रूप जानना । यो अन्तुन्नं रूप सिद्ध हो जाता है । समान ही प्रकोष्ठः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप पट्टो और पउट्टो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-७९ से "र्" का लोप १-१५६ से "ओ" का ""; १९५६ से ही "क" को "व्” की प्राप्ति; २-३४ से "ष्ट" का "ठ; २८६ से प्राप्त "ठ" को द्वित्व "ठठ" की प्राप्ति २-६० से प्राप्त पूर्व "" को "द" की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में "सि" प्रत्यय के स्थान पर "श्री" प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप पषठो सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप (पट्ठी) में सूत्र-सख्या १-१५६ के अभाव में वैकल्पिक पक्ष होने से १.८४ से "ओ" को "उ" की प्राप्ति; १-१७७ से "कू" का लोप, और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना ! यो उठो रूप सिद्ध हो जाता है । आतोद्यम् संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप आवज्जं और उज्ज होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१५६ से "थो" को "" की प्राप्ति और इसी सूत्र से "तू" के स्थान पर "बू" का आदेश; २-२४ से 'द्य" को "ज' की प्राप्तिः २ से प्राप्त "ज" को द्वित्व "ज्ज" की प्राप्ति, ३- २५ से प्रथमा विमति के एक वचन में नपुंसक लिंग में "सि" प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त "म्" का अनुस्वार होकर प्रथम रूप आवज्जं सिद्ध हो जाता है ।
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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