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________________ # प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ २८६ ही; किन्तु शब्द के आन्तरिक भाग में अथवा मध्य भाग में होना चाहिये । जैसे:-दुर्गा देवी-दुग्गा-वो अथवा दुग्गा-एबी ।। उदुम्बर:-म्बरो अथवा उउम्बगे। पाद-पदनम्=पा वडणं अथवा पाय बडणं और पान पीठम्-पा-चीढं अथवा पाय वी ढं ।। प्रश्नः-'अन्तर मध्य-भाग' में ही होना चाहिये तभी स्वर सहित 'द' का विकल्प से लोप होता है। ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तर:- क्योंकि यदि 'द' वर्ण शब्द के आदि में अथवा अन्त में स्थित होगा तो उस 'द' का लोप नहीं होगा। इसीलिये 'अन्तर्मध्य' भाग का उल्लेख किया गया है । जैसे:-दुर्गा-देवी में आदि में 'द' वर्तमान है; इसलिये हम शादि स्थान पर स्थित 'टु' का लोप नहीं होता है । जैसे:-दुर्गा-देवो दुग्गा-चो ।। इत्यादि ॥ दुर्गा-देवी संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप दुग्गा-बी और दुग्गा-एवी होता है। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २. में 'र' का लोप; २-८६ से 'ग' का द्वित्व 'ग्ग'; और १.२७० से अन्त-मध्यवर्ती स्वर महित 'दे' का अर्थात् सम्पूर्ण दे' व्यन्जन का विकल्प से लोप होकर प्रथम रूप दुग्गा-वी मिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से द्वितीय 'द्' का लोप होकर एवं शेप साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप दुग्गा-एवी भी सिद्ध हो जाता है। उदुम्बरः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप उम्परो अथवा उउम्बरो होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२७० से अन्तर्मध्य-वर्ती स्वर सहित 'दु' का अर्थात् संपूर्ण 'दु' व्यञ्जन का विकल्प से लोप और द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से दु' का लोप; तथा ३-२ से प्रथमा यिक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय को प्राप्ति होकर क्रम से उम्बरो और उउम्बरी रूपों की सिद्धि हो जाती है। पाद-पतनम संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप पा-वडणं और पाय-वडण होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-२५० से अन्तमध्यवर्ती स्वर सहित 'द' का अर्थात् संपूर्ण 'द' व्यजन का विकल्प से लोप और द्वितीय रूप में सूत्र संख्या ६.१७७ से 'द' का लोए एवं १-१८० से लोप हुए 'द में से शेप रहे हुए 'अ' को 'य' को प्राप्ति; १.२३१ से दोनों रूपों में द्वितीय 'प' का 'व'; १.२१६ से शेनों रूपों में स्थित 'त' का 'ड'; १-२२८ से दोनों रूपों में 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्त के एक वपन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से पा-पडणं और पाय-पडणं दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। पाद-पीठम् संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप पा-बीढं और पाय-वीरें होते हैं इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-२७० से अन्तर्मध्यवर्ती स्वर सहित 'द' का विकल्प से लोप; द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या १-१४७ से 'द' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'द' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्रामि; १-२३१ से
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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