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________________ २६. ] * प्राकृत व्याकरण * दोनों रूपों में द्वितीय 'प' का 'ब'; १-१६६ से दोनों रूपों में 8 का 'ढ'; ३.८५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'भ' प्रत्यय की दोनों रूपों में पानि और १.२३ से प्राप्त 'म्' का अनुम्बार होकर क्रम से पा-पीढं और पाय-पीढं दोनों रूपों की मिद्धि हो आती है ।।१-२७॥ यावत्तावजीविता वर्तमानावट-प्रावरक-देव कुव मेवे वः १-२७१॥ यावदादिषु सस्वर वकारस्यान्तवर्तमानस्य लुग् वा भवति ।। जा जाय । ता ताय । जीअं जीविझं । अत्तमाणो आवत्तमाणो । अडो अबढो । पारी पावार ओ । देउनं देव उलं एभव एवमेव ॥ अन्तरित्यय । एवमेवन्त्यस्य न भवति ।। अर्थः--यावत् तात्रन, जीवित, आवर्तमान. अवट. प्रापरक, देवकुल और एवमेव पत्रों के मध्य-भाग में (अन्तर-भाग में) स्थित स्वर सहित-व का अर्थात् मंपूर्ण व' घ्यजन का विकल्प से लाप होता है । जैसे:-यावत-जा अथवा जाब ।। तावन्न्ता अथवा नाव || जीवितम्-जोधे अथवा जीविरं || आदत मानः अत्तमाणो अथवा आवत्तमाणो ॥ श्रवट:-अडो अथवा श्रवडो । प्राबारका पारश्रो अथवा पावारओ ।। देवकुलम्दे-उलं अथवा देव उलं और एवमेव = एमेक अथवा पत्रमेव ।। प्रश्न-'अन्तर.-मध्य-भागी 'व' का ही लोप होता है; ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तर:-यदि 'अन्तर -मध्य-भागी' नहीं होकर अन्त्य स्थान पर स्थित होगा नो 3 'व' का लोप नहीं होगा। जैसे:-एवमेव में दो वकार है; तो इनमें से मध्यवर्ती 'वकार' का ही विकल्प से लोप होगा; न कि अन्त्य 'धकार' का । ऐसा ही न्यि शठकों के सम्बंध में जान लेना ।। यावत् संस्कृत अव्यय है । इसके प्राकृत में जा और जाव रूप होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १.४५ से 'य' का 'ज'; १-२४१ से अन्तर्वर्ती व' का विकल्प से लोप; और ५-११ से अन्त्य व्याजन 'तू' का लोप होकर क्रम से जा और जाय दोनों रूपों की मिद्धि हो जाती है । तावत् संस्कृन अव्यय है । इसके प्राकृत रूप ता और ताव होते हैं । इनमें सूत्र संख्या १-२७१ से अन्तर्वी 'ध' का विकल्प से लोप और ५- १ से अन्य व्यवन त्' का लोप होकर क्रम से ता और ताव दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। जीवितम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप जी और जावि होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२७१ से अन्तर्वी स्वर सहित 'वि' का अर्थात् संपूर्ण 'वि' मन का विकल्प से लोप; १- से दोनों रूपों में 'त् का लोपा ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर क्रम से जी और जीवि दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। .
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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