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________________ ४६२1 * प्राकृत व्याकरण * लोचनानाम् संस्कृत षष्ठपन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप लोअणाणं होता है । इसमें पत्र-संख्यार-१७७ से 'च' का लोप; १-२.८ से प्रथम 'न' के स्थान पर 'ग' को प्राप्ति ३.६ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में प्रकारात में संस्कृत प्रत्यय 'आम' के स्थानीय माम्' प्रत्यय के स्थान पर ३-१२ से प्राकृत में ' प्रत्यय को प्राप्ति; 'ण', पूर्व में स्थित 'अ' के स्थान पर वीर्घ स्वर 'आ' की प्रानि; १-२७ प्राप्त प्रत्यय 'ण' पर आमम रूप अनुस्वार की प्राप्ति होकर लोभणार्ण रूप सिबी जाता है। अनुवचम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप अणब होता है। इसमें सूत्र-संख्या १.२२८ सेन के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति, ३-२५ से प्रश्मा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसकलिग में "सि' प्रत्यय म्' प्रत्यय को प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त का अनुस्वार होकर अणुबर्च रूप सिद्ध हो जाता है । ते सर्वमान हर को सिदि सूत्र-संस्था १-७ में की गई है। चिा अव्यय रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-९९ में की गई है। कामिनीभ्यः संस्कृत चतुर्दान्त रूप है । इसका प्राकृत रूप कामिणोणं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'म' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति ३-१३१ से चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर बछी विभक्ति का विधान ३-६ से षष्ठो विभक्ति के मह वचन में शीर्ष ईकारात स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'माम्' के स्थान पर 'ण' प्रस्यप की प्राप्ति और १-२७ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' पर अरगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति होकर कामिणीणं रूप सिद्ध हो जाता है। ते संस्कृस सर्वनाम रूप है । इसका प्राकृत रूप भो 'ते' हो होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से मूल कर 'तत्' के द्वितीय 'त' का लोप; ३-५८ से प्रथमा विभक्ति के वह पचन में प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर के आवेश; '' में 'इ' इत्संजक होने से पूर्वस्थ 'त' में रहे हर 'अ' की इसना होने से लोप; भौर १-५ से शेष हलन्त 'त्' में प्राप्त प्रत्यन 'ए' की संधि होकर ते जप सिद्ध हो जाता है। चिया अस्यय करकी सिद्धि सत्र-संख्या १-८की गई। धन्याः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत हप बना होता है। इसमें सुध-संख्या २-७८ से ''का लोप; ८९ से लोप हुए '' के पश्चात् पोष रहे इए'म' को द्वित्व 'न की प्राप्ति से प्रथमा विभक्ति के मह वचन में अकाराल में प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'जस' का लोप और ३.१२ से प्राप्त एवं लपत 'जस' प्रस्थय के पूर्व स्थित 'न' के अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर वीर्घ स्वर 'आ'को प्राप्ति होकर धन्ना र सिद्ध हो जाता है। 'ते' सर्वनाम रूप को सिदि इसी सूत्र में ऊपर की गई है। 'धेश' प्रत्यय की सिद्धि सूत्र संस्था १-७ में की गई है। सुपुरुषाः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सुपुरिसा होता है। इसमें सूत्र संख्या १.१११ से 'श' में स्थित 'उ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति: १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा मिक्ति मह बचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'ज' का लोप और ३०१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के पूर्व
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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