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________________ * प्राकृत व्याकरण * । १-६८५ से 'त' का '' की प्राणि ३ २५. से प्रथम विभक्त के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर दुक्कडं रूप सिद्ध हो जाता है। सुकृत संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सुक्कड होता है । इसमें सूत्र संख्या १-५२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-८८ से 'क' को द्वित्व 'क' की प्राप्ति, १-२०६ से 'न' को 'दु की प्राप्ति ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नासक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म् का अनुस्वार होकर मुक्कडं रूप सिद्ध हो जाना है। आहृतं संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप आहढ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-५२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्तिः १-२०६ से 'त' को 'ड' प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और ५-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर आहडं रूप सिद्ध हो जाता है। अवहतं संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप अवह होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-२०६ से 'त' के स्थान पर 'ढ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रश्रमा विभक्तिः के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर अवहडं रूप सिद्ध हो जाता है । प्रतिसमयं संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पहप्तमयं होता है । इसमें सूत्र संख्या २-७६ से 'र' का लोपः १.१७७ से 'त्' का लोपः ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नमक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पइसमय रूप मिद्ध हो जाता है। प्रतीयम् संस्कृत विशेषण रूप है । इमका प्राकृल रूप पईवं होता है । इसमें सूत्र संख्या २-७६ से 'र' का लोप; १-१७७ से 'तु' का लोपः १-२३१ से द्वितीय 'प' को 'व' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंमक लिंग में 'सि-प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पई रुप सिद्ध हो जाता है । संप्रति संस्कृत अन्यय है । इसका प्राकृत रूप संपह होता है। इस में सूत्र-संख्या २.७६ से 'र' का लोप और १-१४७ से ,त्' का लोप होकर सपड़ रुप सिद्ध हो जाता है। प्रतिष्ठानम् संस्कृत रुप है । इसका प्राकृत रूप पइट्ठाणं होता है। इसमें मत्र संख्या २७६ से 'र' का लोप; १-१४७ से 'त्' का लोप; २.६७ से 'ष' का लोप; ८ से शेष ' को द्वितीय 'छु' की प्राप्ति २-१० से प्राप्त पूर्व '' को 'ट्' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' को 'ण' की प्राप्ति ३-२५. से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर यइ ठाणे रूप मिद्ध हो जाता है।
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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