SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४१ मार्जार-संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप मंमारो और मामारी होते हैं। इनमें से प्रथम रूम में सूत्र संख्या १-८४ से "मा" में स्थित "" के स्थान पर "ब" को प्राप्ति: १-२६ से "म" पर आगम रूप अनुस्वार को प्राप्ति; २-७९ से रेफ रूप हलन्त " का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक पन में अकारान्त पुल्लिग में सि" प्रत्यय के स्थान पर "ओ" प्रस्थय को प्राप्ति होकर प्रथम रूप मंजारो सिब हो जाता है। द्वितीय रूप-(मार्जार:-) मारी में सूत्र-संख्या १-८४ से "मा" में स्थित "मा" के स्थान पर 'अ' को शस्ति; २-७९ से रेफ रूम " को -८६ पचात् शेष रहे " को द्विस्व "ज" को प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिा में "सि" प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर द्वितीय रूप मज्जारो भी सिद्ध हो जाता है । ययस्य:-संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत व वर्षसो होता है। इसमें संक्षा १-२६ से प्रथम 'य" पर अगम कप अनुस्वार को प्राप्ति; २-७८ से द्वितीय '' का लोप और १-२ से प्रथमा विभक्ति के एक सदन में अकारान्त पुल्सिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर वयंसो रूप सिद्ध हो जाता है। मनस्वी-संकृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मसी होता है। इसमें सुध-संस्था १-२२८ हे 'न' के स्थान पर 'ष' को प्राप्ति; १-२६ से प्राप्त 'ग' पर आपम रूप मनुस्वार की प्राप्ति, २-७९ से '' का लोग, १-१ से मूल संस्कृत शब्द 'मनस्विन्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप और 4-१९ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में प्राप्त ह्रस्व इकारन्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हव स्वर 'इ' को वो स्वर को प्राप्ति होकर मणंसी रूप सिब हो जाता है। मनस्विनी-संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मणमिणी होता है। इसमें सब-संख्या १-२२८ से '' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति ; १-२६ से प्राप्त 'ण' पर आगम रूप अनुस्वार को प्राप्ति; २-७१ से ''का लरेप और 1-२२८ से द्वितीय 'न' के स्थान पर 'ण' को प्राप्ति होकर मणसिणी रूप सिद्ध हो जाता है। मनः शिला संस्कृत रूप है । इसके प्राकूस रूप मगसिला, मणसिला, मणासिका और (आर्ष-प्राकृत में) मणोसिला होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १.२२८ से 'न' के स्थान पर 'प' को प्राप्ति; १-२६ से प्राप्त 'ण' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; १-११ से 'मनस् = मनः' शम के अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'स्' का लोप और १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप मणसिला सिब हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या १-२६ के अतिरिक्त घोष सूत्रों को प्रथम-रूप के समान हो' प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'मण-सिला' सिद्ध हो जाता है। तृतीम रूप में सूत्र-संख्या 1-४३ है प्राप्त द्वितीय रूप मण-सिला' में स्थित 'ण' के 'अ' को दोष स्वर 'जा' की प्राप्ति होकर तृतीय रूप मणा-सिला सिद्ध हो जाता है। पतु प-में सूत्र संख्या १-३ से प्राप्त द्वितीय रूपम-सिला' में स्थित 'ण' के 'अ'को वैकल्पिक रूपले '' की प्राप्ति होकर पतुर्ष आर्य रुप 'मणो-सिला भी सिद्ध हो जाता है।
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy