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________________ ५३४ ] = रूप से अथवा उच्चारण में सहायता रूप से ही इनका प्रयोग किया जाता है; तदनुसार से अर्थ होन होते हैं एवं तात्पर्य से रहित ही होते हैं। पाद-पूर्ति तक ही इनकी उपयोगिता जाननी चाहिये। उदाहरण इस प्रकार हैं::- न पुनर अक्षीणि न उणा इ अच्छी अर्थात पुनः आँखें नहीं - ( वाक्य अपूर्ण है) । इस उदाहरण में एकाक्षरी रूप 'इ' श्रव्यय अर्थ हीन होता हुआ भी केवल पाद-पूर्ति के लिये ही श्राया हुआ है। 'जे' का उदाहरण:- अनुकूलं वक्तु ं श्रणुकूलं बोत जे अर्थात् अनुकूल बोलने के लिये । इस प्रकार यहाँ पर 'जे' अर्थ हीन रूप से प्राप्त है । 'र' का उदाहरणः - गृहणाति कलम गोपी = एहइ र कलम- गोबी अर्थात् कलम- गोपी (धान्यादि की रक्षा करने वाली स्त्री विशेष ) ग्रहण करती है। इस उदाहरण में 'र' भो अर्थ हीन होता हुआ पाद-पूर्ति के लिये ही प्राप्त है । यो अन्यत्र भी जान लेना चाहिये । 7 * प्राकृत व्याकरण * प्राकृत-साहित्य में अन्य अव्यय भी देखे जाते हैं; जो कि संस्कृत के समान ही होते हैं; कुछ एक इस प्रकार है: - (१) अहो, (२) हंहो, (३) देहो, (४) हा, (५) नाम, (६) श्रहह, (७) ही सि, ( 5 ) अयि, (६) श्रहह, (१०) अरि, (११) रि और (१२) हो । ये अव्यय-वाचक शब्द संस्कृत के समान ही अर्थयुक्त होते हैं और इसकी अक्षरीय रचना भी संस्कृत के समान ही होकर तद्वत् सिद्ध होते हैं । अतएव इसके लिए अधिक वर्णन की आवश्यकता नहीं रह जाती हैं । 'न' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १०६ में की गई है । 'उ' श्रव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-६५ में की गई है। 'ई' अव्यय पाद- पूर्ति अर्थक मात्र होने से साधनिका की आवश्यकता नहीं रह जाती है। 'अच्छी रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १३३ में की गई है। अनुकूल संस्कृत द्वितीयान्त विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप अनुकूल होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'नू' के स्थान पर 'णू' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'मू' का अनुस्वार होकर अणुकूल रूप सिद्ध हो जाता है । वक्तुम्, संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप बोत्त' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२११ से मूल संस्कृत धातु 'वच्' के स्थान पर कृदन्त रूप में 'बोत्' आदेश और ४-४६८ से संस्कृत के समान ही आकृत में भी त्वर्थ कृदन्त अर्थ में 'तुम' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से अन्य हलन्त 'म्' का अनुस्वार होकर घोत्तुं रूप सिद्ध हो जाता है। 'जे' अव्यय पाद पूर्ति अर्थ मात्र होने से साधनिका की आवश्यकता नहीं रह जाती है। गृणाति संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप यह होता है । इसमें सूत्र संख्या ४-२०६ से मूल संस्कृत धातु 'मह' के स्थान पर प्राकृत में 'यह' आदेश और ३-१३१ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गेण्डर रूप सिद्ध हो जाता है । +
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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