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________________ સરસ્વતિબહેન મણીલાલ શાહ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * ४२१ . . . लघुके ल-होः ।। २-१२२ ॥ लघुक शब्दे घस्य हवे कृते लहोयत्ययों या भवति ॥ हलुआं। लहुवे ॥ घस्य व्यत्यये कृते पदादित्वान हो न प्राप्नोतीति हकरणम् ।। अर्थ:- संस्कृत शब्द 'लघुक' में स्थित 'घ' व्यजन के स्थान पर सूत्र-संख्या १-१८ से 'ह' अादेश की प्राप्ति करने पर इस शब्द के प्राकृत रूपान्तर में प्राप्त ह' वर्ण का और 'ल' वर्ण का परस्पर में वैकल्पिक रूप से व्यत्यय होता है। जैसे:-लघुकम् = हलुओं अथवा लहुअं ॥ सूत्र-संख्या ५-१८७ में ऐमा विधान है कि ख, घ, थ, ध और भ वर्ण शब्द के प्रादि में स्थित न हों तो इन वर्गों के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होती है। तदनुसार 'लथुक' में स्थित 'घ' के स्थान पर प्राप्त होने वाला 'ह' शब्द के आदि स्थान पर आगया है; एवं इस विधान के अनुसार 'घ' के स्थान पर इस श्रादि 'ह' को प्राप्ति नहीं होनो चाहिये श्री । परन्तु यहां 'ह' की प्राप्ति व्यत्यय नियम से हुई है; अतः सूत्र-संख्या १-१८७ से अबाधिन होता हुश्रा और इस अधिकृत विधान से व्यत्यय को स्थिति को प्राप्त करता हुआ 'ह' आदि में स्थित रहे तो भी नियम विरूद्ध नहीं है। लघुकम संस्कृत विशेषण रूप है । इसके प्राकृत रूप हल और लहुंअं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १.१८७ से 'घ' के स्थान पर 'ह' आदेश की प्राप्ति; २-१२२ से प्राप्त 'ह' षण का और 'ल' वर्ण का परस्पर में वैकल्पिक रूप से व्यत्यय; १-१७७ से 'क' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से हल्दुभं और लहुअं दोनों रूपों को सिद्धि हो जाती है ॥२-१२२।। ललाटे ल-डोः ॥१-१२३॥ ललाट शब्द लकार डकारयो र्व्यत्ययो भवति वा ॥ ण्डालं । णलाडं। ललाटे च [१.२५७] इति आद लस्य रणविधानादिह द्वितीयो लः स्थानी ॥ अर्थ:-संस्कृत शब्द 'ललाट' के प्राकृत रूपान्तर में सत्र-संख्या १-१६५ से 'ट' के स्थान पर प्राप्त 'ड' वर्ण का और द्वितीय 'ल' वर्ण का परस्पर में वैकल्पिक रूप से व्यत्यय होता है। जैसे:-ललाटम् 'पण्डालं' अथवा एलाडं ।। मूल संस्कृत शब्द ललाट में दो लकार है। इनमें से प्रथम 'ल' कार के स्थान पर सूत्र संख्या १-२५७ से 'ए' की प्राप्ति हो जाती है। अत: मत्र-संख्या २-१२३ में जिन 'ल वर्ण की और 'ड' वर्ण की परस्पर में व्यत्यय स्थिति में बललाई है। उनमें 'ल' कार द्वितीय के सम्बंध में विधान है-ऐसा समझना चाहिये ।। ललाटम संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप णडाल और गलाई होते हैं। इनमें से प्रथम रूप गडालं की सिद्धि सत्र संख्या १.४७ में की गई है। द्वितीय रुप-(ललाटम् ) पलाई में सत्र-संख्या १-२५७
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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