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________________ * प्रिमोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [१७६ में स्थित 'र' का लोप; १-१६५ से शेष 'त' में स्थित 'श्र' का और 'यो' के लोप के साथ 'ए' की प्राप्ति, १-२१६ से 'द' के स्थान पर 'र' का आदेश; और १-२६२ से 'श' के स्थान पर 'ह' को श्रादेश होकर तेरह रूप सिद्ध हो जाता है। त्रयोविंशति संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप तेवीसा होता है । इसमें सूत्र संख्या २-७६ से 'त्र' में स्थित 'र' का लोप; १,१६५ से शेष 'त' में स्थित 'अ' का और 'यो' के लोप के साथ 'ए' की प्राप्ति; ०२८ से अनुस्वार का लोप; १-६२ से हस्व इ' को दीर्घ 'ई' की प्राप्ति और इसी सूत्र से 'ति' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स'; ३-१२ से 'जस्' अथवा 'शस्' प्रत्यय की प्राप्ति होने से अन्त्य 'ब' का 'या'; और ३-४ से प्राप्त 'जस्' अथवा 'शस्' प्रत्यय की प्राप्ति होकर एवं इनका लोप हो जाने से तेवीसा रूप सिद्ध हो जाता है। प्रयस्त्रिंशव संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप तेत्तीसा होता है। इसमें सूत्र संख्या २.६ से 'त्र' में स्थित 'र' का लोप; १-१६५ से शेष 'त' में स्थित 'अ' का और 'य' के लोप के साथ 'ए' की प्राप्ति २-७७ से 'सू' का लोप; १-२८ से अनुस्वार का लोप; २-७E से द्वितीय 'त्र' में स्थित 'र' का लोप; २-४ से शेष 'त' को द्वित्व 'सत्' की प्राप्ति; .२ से 'इ' की दीर्घ 'ई'; १-२६० से श' का 'म'; १-११ से अन्त्य व्यन्जन '' का लोप; ३-१२ से 'जस्' अथवा 'शस्' प्रत्यय की प्राप्ति होने से अन्त्य 'अ' का 'या' और ३-४ से प्राप्त 'जस' अथवा 'श' प्रत्यय की प्राप्ति होकर एवं इनका लोप हो जाने से तेत्तीसा रूप सिद्ध हो जाता है । ॥ १-१६५ ॥ स्थधिर-विवकिलायस्कारे ॥ १-१६६ ॥ एषु प्रादेः स्वरस्य परेण सस्वर व्यञ्जनेन सह एद् भवति । थेरो वेइल्ल । सुद्धविभइन्न-पसण पुञ्जा इत्यपि दृश्यते । एकारो॥ . __ अर्थ:--स्थविर, विचकिल और श्रेयस्कार इत्यादि शब्दों में रहे हुए श्रादि स्वर को पर-वर्ती घर सहित व्यन्जन के साथ 'ए' की प्राप्ति हुआ करती है । जैसे-स्थविर =थेरोः विकिलम् = वेइल्लं; अयस्कार: एक्कारो । मुग्ध-विचकिल-प्रसून-पुजाः-मद्ध-विअइल्ल-पसूण-पुजा इत्यादि उदाहरणों में इस सूत्र का अपवाद भी अर्थात् “आदि म्वर को परवर्ती स्वर सहित व्याजन के साथ 'ए' की प्राप्ति" का प्रभाव भी देखा जाता है। स्थविरः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप थेरो होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'स्' का लोप; १-१६६ से 'थवि' का 'थे'; ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के साथ 'भो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर थैरो रूप सिद्ध हो जाता है। पिचकिलम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप घेइल्वं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१६६ से
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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