SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २० ] ** प्राकृत व्याकरण फॉल - नार्यः प्रथमान्त यह वचन रूप है। इसका प्राकृत रूप जारीओ होता है। इसमें सूत्र -१-१६२ से 'ओ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्तिः १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ६-२७ से प्रथमा विभक्ति के बहु वचन में संस्कृत में प्राप्तश्य प्रत्यय 'जस्=असू के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर कउल-णारीओ कर सिद्ध हो जाता है। निशा - परः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप निसा बरो और निसि बरी होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२६० से के स्थान पर कोमा १७२ से द्वितीय रूप में "आ" के स्थान पर बैकल्पिक रूप से "इ" को प्राप्तिः १-२७७ से" का सोप; १-८ मे सोप हुए "" के पश्चात् शेष रहे हुए को उस स्वर की संज्ञा प्राप्त होने से पूर्वस्थ स्वर के साथ संधि का अभाव और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में संस्कृत में प्राप्य "सि" के स्थान पर प्राकृत में "डोओ" प्रत्यय की प्राप्ति होकर रूप से दोनों रूप निसा-अये और नितिअरो सिद्ध हो जाते हैं । रजनी-वरः संस्कृत रूप है। इस प्राकृत रूप रमणी-अरी होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ "ज् और "" का छोप; १-१८० से लोप हुए "जु" के पश्चात् शेष रहे हुए "अ" के स्थान पर "" को शाप्ति; १- २२८ से "नु" के स्थान पर "" की प्राप्ति १८ से लोप हुए "" के पश्चात् दोष रहे हुए "म" को उत स्वर की संज्ञा प्राप्त होने से पूर्वस्य स्वर के साथ संधि का अभाव और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बज में "सि" प्रत्यय के स्थान पर "ओ" प्रत्यय की प्राप्ति होकर रयणी अरो रूप सिद्ध हो जाता है । मनुजत्वम्, संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मणुभ होता है। इसमें संख्या १२२८ से "" के स्थान पर "" की प्राप्ति १-१७७ से ज्" का लोप २७९ से "" का लोप २-८९ से लोप हुए 'व्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्तिः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय की स्थान पर 'म' प्रत्मय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म' का अनुस्वार होकर मयुतं रूप सिद्ध हो जाता है । कुम्भकारः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप कुम्भ-गारो और कुम्भारो होते हैं। इनमें सूत्र संस्था १-१७७ से द्वितीय 'कृ' का लोप १-८ को वृत्ति से लोप हुए 'क' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' को उत्त स्वर की संज्ञा प्राप्त होने से पूर्वस्थ स्वर को सभ्य वैकल्पिक रूप से संधि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप कुम्भ-भारो और कुम्भारो सिद्ध हो जाते हैं। सु-पुरुषः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप सु उरिसरे और रिसी होते हैं इन सूत्र संख्या १-१७७. '' का लोप १-८ की मूर्ति सं सोप हुए 'पू' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' को उद्धृत स्वर की संज्ञा प्राप्त होने से पूर्वस्य स्वर 'उ' के साथ वैकल्पिक रूप से सधिः तबनुसार १५ से द्वितीय रूप में दोनों 'उ' कारों के स्थान पर दोघं 'क' फार की प्राप्तिः १ - १११ से 'रु' में स्थित 'ज' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १-२६० सं 'ब' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बदन में प्रकारन्त पुि
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy