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________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [२१ म 'लि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत 'ओ' प्रत्यय को मास्ति होकर कम से दोनों रूप-7-उरिसी और सूरिसो सिद्ध हो जाते है। शात-चाहनः संस्कृत रूप है। इसका प्राकत हर-(साल + आहणो - सालाहणी होता है । इसमें सूत्रसंख्या-१-२६० से 'श्' के स्थान पर 'स्' को प्राप्ति, १-२११ से 'त' के स्थान पर 'ल' को प्राप्ति; १-१७७ से '' का लोप; १-८ को वृत्ति से लोप हुए '' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' को उद्धृत्त स्वर को संज्ञा प्राप्त होने पर भी पूर्वस्थ 'ल' में स्थित 'अ' के साथ संधिः १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पहिलन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकरसालाहगो रूप सिद्ध हो जाता है। चकवाक सस्कृत रूप है। इसका प्राकृत का चरकामी होता है । इसमें सत्र-सया २.७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हए 'क' को द्विस्व 'पर' की प्राप्ति; १-१७७ से '' और द्वितीय-(अन्त्य)-'क' का लोप; १-८ को वृत्ति में लोर दुध '' के पश्चात शेष रहे हर आ' को उसत स्वर की संज्ञा प्राप्त होने पर भी १५ से पूर्वस्थ 'क' में स्थिति 'अ' के साथ उस 'आ' को सन्धि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक पत्रा में अकारान्त पुलिला में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'शो' प्रत्यर की प्राप्ति होकर परका रूप सिद्ध हो जाता है ॥ १-८ ॥ त्यादेः ॥ १-६॥ तिवादीनां स्वरस्य स्वरे पर संधि ने भवति ।। भवति इह । होइ इह ।। अर्थः-धातुओं में अर्थात कियाओं में सयोजित किये जाने वाले काल बोधक प्रत्यय तिब' 'तः' और : 'अन्ति' आदि के प्राकृतीय व 'ड', 'ए'ति', 'न्ले' और 'इरे' आदि में स्थित अन्य स्वर' को आगे रहे हए सजातीय स्वरों के साथ भी संधि नहीं होती है । जैसे:-भवति इह । होइ इह 1 TR उबाहरप्प में प्रथम 'र' तिबादि प्रत्यय सूचक है और आगे भी सजातीय घर 'इ' को प्राप्ति हुई, पर फिर भी दोनों 'दकारों' को परस्पर में सधि नहीं हो सकती है । यो सघि--गत विशेषता को ध्यान में रखना चाहिय । भवति संस्कृत अकर्मक क्यिापन का रूप है । इसका प्राकृत रूप होइ होता है। इसमें सबसपा ४-६० से सस्कृत धातु 'भू' के स्थानीय रूप विकरण-प्रत्यय सहित 'भव' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' आवेश और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक बचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर '' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हाइ रूप सिद्ध हो जाता है। इह संस्कृत अव्यय है । इसका प्राकृत रूप भी इह ही होता है । इसमें सूत्र-सख्या ४-४४८ से लापतिका को आवश्यकता नहीं होकर 'इह' रुप ही रहता है । १-९॥
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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