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________________ * प्राकृत व्याकरण * धगंजओ रूप को सिसि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है। क्षत्रियाणाम् (अपवा त्रिवेषु) संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप खसिआणे होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३ से 'स' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति २.७९ से'' में स्थित ' का लोप; २-८९ से लोप हए 'र' के पावात घोष बचे हुए 'त्' के स्थान पर द्विस्व 'र' की प्राप्ति १-१७७ से '4' का लोप; ३-१३४ से सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति की प्राप्ति; ३-६ से पाठी विभक्ति के बहु वचन में अकारान्त पुल्लिग में संस्कृत प्रत्यप 'आम' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति २.१२ से बाठो विभक्ति के बाद बचन में प्राप्त प्रत्यय 'ण' के पूर्व में स्थित 'अ' के स्थान पर 'आ'बी प्राप्ति और १-२७ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' पर मागम रूप मनस्वार की प्राप्ति होकर खत्तिाणं रुप सिद्ध हो जाता है। 'बले' प्राकृत-साहित्यका रू-अर्थक एवं -सप अव्यय है। अतः साधनिका की अनावश्यकता है। सीहा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२९ में को गई है । ॥ २-१८५ ॥ किरेर हिर किलार्थे वा ॥२-१८६॥ किर इर हिर इत्येते किलार्थे वा प्रयोक्तव्याः ॥ कल्ल किर खर हिमश्रो । तस्स इर | पिन-वयं सो हिर ॥ पक्षे । एवं किल तेण सिविणए भणिश्रा ॥ अर्थ:-संस्कृत में प्रयुज्यमान सम्भावना मात्रक अव्यय किल' के स्थान पर प्राकृत साहित्य में वैकल्पिक रूम से किर' 'र' 'हिर' अध्ययों का प्रयोग किया जाता है । तवन सार प्राकृत साहित्य में संस्कृतीय किल' अव्यय भी प्रयुक्त होता है और कभी कभी 'किर, पर, और 'हिर' अव्ययों में से किसी भी एक का प्रयोग 'किस' के स्थान पर किया जाता है उवाहरण इस प्रकार है:-कल्ये किल खर-हवयः कल्लं फिर सर हिमओ अर्थात् संभावना है कि प्रात:काल में (वह) कठोर हृदय वाला था; तस्य किल-तस्स इर अर्यात संभावना है कि) उसका है); प्रिय वयस्पः किल=पिन-वयंसो हिर-संभावना है कि वह) प्रिय मित्र (है)। पक्षान्तार रूप से 'किल' के स्थान पर 'किल' के प्रयोग का उदाहरण इस प्रकार है:-एवं किल तेन स्वप्नो भणिता:-एवं किल तेण सिविणर भणिमा अर्थात् सम्भावना (है कि इस प्रकार (की बातें) उस द्वारा स्वाम-अवस्था में कही गई है । यो सम्भावना वाचक भव्यय के स्थान पर प्राकृत-साहित्य में चार बाद प्रयुक्त होते हैं, जो कि इस प्रकार हैं:-१ किर, २ इर, ३ हिर मौर किल। कल्ये संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कल्लं होता है । इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य' का लोप; २-८९से लोपए के पश्चात् शेव रहे नए 'ल' को विश्व हल' की प्राप्ति; ३-१३. से सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विक्ति की प्राप्ति : ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एक वचन में अकारान्त में 'म' प्रत्यय की प्राप्ति भौर १-२३ से प्राप्त म्' का मनुस्वार होकर कल्लं रूप सिद्ध हो जाता है। फिल संस्कृत सम्भावना-अर्थक अव्यय है। इसका प्राकृत रूप फिर होता है इसमें सुत्र संख्या २-१८६ में
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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