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________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४६५ चन्दो हरकी सिदि सूत्र संख्या १०में की गई है। . गगनम् संस्कृत है। इसका प्राकृत रूप भयणं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से द्वितीय 'गा लोप; १-१८० से लोप हुए 'म्' के पश्चात् शेष रहे हए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्रारित; १-२२८ से 'म' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३:२५ से प्रपमा विभक्ति के एक पचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में fस' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर गयणं रूप सिब हो जाता है। इह रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-९ में की गई है। आश्लेष्टुम् संस्कृत कृदन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप झालेट होता है। इसमें प्रव-संख्या २-७७ से '' का लोप; २-३४ से ष्ट्' के स्थान पर ' की प्राप्ति २-८९ से प्राप्त को हित्व 'इ' की प्राप्तिः २९. से प्राप्त पूर्व '' के स्थान पर 'द' को प्राप्ति और १-२३ से अन्रप हलन्त 'म' का अनुवार होकर आदळू रूप सिद्ध हो जाता है। बहु (क) संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप बह और बहुअं होते हैं । प्रथम रूप 'मह' संस्कृत 'सत्' सिन ही है। द्वितीय-रूप में मत्र संख्या २-१६४ से स्व-अर्थ में 'क' प्रत्यय को प्राप्ति १-१७७ से प्राप्त की प्रा ३-२५ से प्रथमा विमक्ति के एक वचन में अकारान्त मसलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति भौर १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर द्वितीय रूप बहु भी सिद्ध हो जाता है -१६४॥ ल्लो नवैकाहा ॥ २-१६५ ॥ आभ्यां स्वार्थे संयुक्तो लो वा भवति ।। नबल्लो । एकल्लो ॥ सेवा दित्वात् कस्य द्वित्वे एकल्ली । पचे । नयो । एको । एलो।। अर्थ:-संस्कृत शम्न 'नव' और 'एक' में स्व-अर्थ में प्राकृत-भाषा में वैकल्पिक रूप से विस्व 'ल' प्रत्यय को प्राप्ति होती है । जैसे:- नवः = नवल्लो अथवा नो । एकः = एकल्लो अथवा एओ। सूत्र संख्या २-९९ के अनुसार एक शम्ब सेवादि-वर्ग वाला होने से इसमें स्थित 'क' को वैकल्पिक रूप से विस्व 'क' को प्राप्ति हो जाती है। तदमुसार 'एक:' के प्राकृत रूप 'स्व-अर्ष' में एफल्लो' और 'एक्को' भी होते हैं। नकः संस्कृत विशेष रूप है । इसके प्राकृत-कप (स्वार्थ बोषक प्रत्यय के साथ) नवल्लो और नवो होते है इनमें सूत्र संख्या २-१६५ स स्व-अर्थ में बैकल्पिक रूप से संयुक्त अर्थात् हित्व 'ल्ल' को प्राप्ति और ३. से प्रथमा विभरित के एक वचन में अकारान्त पुस्लिप में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'भो' प्रत्यय को प्राप्ति होकर कम से नषल्लो और नवो दोनों रूप सिद्ध जाते हैं। एक: संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप-( स्वार्य-बोधक प्रत्यय के साथ )-एकल्लो, एमकल्लो, एकको और एमओ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-१६५ से 'स्व-अप' में कल्पिक रूप से संपुरत अर्थात् विस्व 'ल' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बघन में भकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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