SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 265
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [२४१ प्राप्ति और ३-२ मे प्रथमा विभक्ति के एक बधन में अकारान्त पुल्लिंग में मि प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' होकर हयासो रूप सिद्ध हो जाता है। श्रतः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका नाकाम सुप्रो होता है। इसमें सत्र संख्या २-७९ सेर का लोप; १-२६० से 'श' को 'स' की प्राप्ति; १५७१ से 'त् का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय को प्राप्ति होकर सुओ रूप सिद्ध हो जाता है। आकृतिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप आकिई होता है । इप्समें सूत्र संख्या १-१२८ से 'ऋ' को 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'न' का लोप और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक ववन में इकारान्त स्त्री लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस स्वर 'इ' को दोर्य-स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर आर्किई रूप सिद्ध हो जाता है। निर्वृतः संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप निब्युयो होता है । इसमें सूत्र संख्या २-७६ से 'र' का लोप; १.९३१ से 'र' को 'उ' को प्राप्ति; ..८६ से 'च' को द्वित्व 'व्व की प्राप्ति, १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर नियुभो रूप सिद्ध हो जाता है। तात: संस्कन रूप है । इसका प्राकृत रूप ताओ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रश्रमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'अ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर ताओ रूप सिद्ध हो जाता है। कतरः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप कयरो होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोपः १-१८० से लोप हुए 'त्' में से शेष रहें हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कारो रूप सिद्ध हो जाता है। दुरी रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-९४ में की गई है। अतुः संस्कृत रूप है । इसका शौरसेनी और मागधी भाषा में उदू रूप होता है। इसमें सुत्र संख्या १-१३१ से 'ऋ' को 'उ' की प्राप्ति; ४-२६० से 'त्' को 'दू" को प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में उकारान्त में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'क' की प्राप्ति होकर उदू रूप सिद्ध हो जाता है। रजतम् संस्कृत रूप है । इसका शौरसेनी और मागधी भाषा में रयदं रूप होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१४७ से 'ज्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ज' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति ४-२६० से 'त' को 'द' की प्राप्ति; ३.५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि'
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy