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________________ ४०० ] * प्राकृत व्याकरण * . . . . दहब्बं और दइय रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-१५३ में की गई है। तुणीकः संस्कृत विशेषण रूप है । इसके प्राकृत रूप तुहिक्को और तुण्हिो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-८४ से वीर्घ स्वर '' के स्थान पर हस्वर 'उ' की प्राप्ति; २-७५. से संयुक्त व्यञ्जन 'षण' के स्थान पर 'एह' रूप आदेश की प्राप्ति; १-८४ से दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' को प्राप्ति २-६ से अन्य व्यञ्जन 'क' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'क' की प्राप्ति और द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ मे 'क' का लोप एवं दोनों ही रूपों में ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से तुणिहक्को और तुषिही दोनों ही रूप सिद्ध हो जाते हैं। मकः संस्कृत विशेषण रूप है । इसके प्राकृत रूप मुक्को और मूओ होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'अ' के स्थान पर हस्व स्वर '' को प्रानि; ६६ से अन्त्य व्यञ्जन 'क' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'कक' की प्राप्ति और द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से 'क' का लोप एवं दोनों ही रूपों में ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'प्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से मुक्को और मूओ दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। स्थाणुः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप खण्णू और खाणू होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-७ से संयुक्त व्यन्जन "स्थ" के स्थान पर 'ख' रूप श्रादेश की प्राप्ति; ६-८४ से दीर्घ "श्री" के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २.६.६ से अन्स्य व्यञ्जन ण' को वैकल्पिक रूप से द्विस्व "एण" को प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में उकार:न्त पुल्लिग में "सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्य स्वर 'ज' की दीर्घ स्वर 'क' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप खरण मिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप खाणू की सिद्धि सूत्र संख्या २.७ में को गई है। थिण्णं और धीणं रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-७४ में की गई है। अस्मदीयम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकत रूप अम्हकर और अम्हकर होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७४ ले संयुक्त व्यकजन 'स्म' के स्थान पर 'म्ह' रूप आदेश की प्राप्ति; १-१७७ से 'द्' का लोप; २.४७ से संस्कृत 'इमर्थक' प्रत्यय 'इय के स्थान पर प्राकृत में 'केर' प्रत्यय की प्राप्ति; - से अनन्त्य व्यन्जन 'क' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'क' की प्राप्ति; ३-०५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर क्रम से अम्होरं और अम्हकर दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। तं च्चेभ और ते चेअ रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-५ में की गई है। • सो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-६७ में की गई है। रिचा रूप को सिद्धि सूत्र संख्या १-में की गई है।
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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