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________________ ४५४] * प्राकृत व्याकरण * हणुमन्तो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२१ में की गई है। श्रीमान संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप सिरिमन्तो होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०४ से 'श्री' में स्थित 'श' में श्रागम हप 'इ' की प्राप्ति; ५-६० से प्राप्त शि' में स्थित 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-४ से दीर्घ 'री' में स्थित 'ई' के स्थान पर हस्व 'इ' की प्राप्ति; २-१५६ से 'बालाअर्थक संस्कृत प्रत्यय 'मान' के स्थान पर प्राकृत में 'मन्त' श्रादेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्मय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सिरिमन्ती रूप सिद्ध हो जाता है। पुण्यवान संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप पुण्णमन्तो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २.७८ से 'य' का लोप; २.८६ से लोप हुप 'य' के पनाम शेष रहे हुए 'ण' को द्वित्व 'गण' की प्रामि; २-१५६ से 'वाला-श्रर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान्' के स्थान पर प्राकृत में 'मन्त' श्रादेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुस्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पुण्णमन्ती रूप सिद्ध हो जाता है। काव्यशन संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप कष्वइत्तो होता है । इसमें सूत्र-संख्य १-८४ से दीर्घ स्वर प्रथम 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'श्र को प्राप्त; २-54 से 'य' को सो; २से लोप हुए 'य' के पश्चात शेष रहे हुए 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति; २-१५६ से 'वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान ' के स्थान पर प्राकृत में 'इत्त' आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर फव्यहत्तो रूप सिद्ध हो जाता है । मानवान संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप माणइत्तो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से प्रथम 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २-१५६ से 'वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'बान ' के स्थान पर प्राकृत में 'इत्त' आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर माणदत्तो रूप सिद्ध हो जाता है। गवान् संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रुप गरिरो होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-७ से 'र' का लोप; २.८६ से लोप हुए 'र' के पश्चात शेप रहे हुए 'च' को द्वित्व 'ठव' की प्राप्ति; २-१५ से 'वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'चान' के स्थान पर प्राकृत में 'इर' श्रादेश; १-१० से प्राप्त 'उव' में रहे हुए 'अ' का आगे प्राप्त 'इर' प्रत्यय में स्थित 'इ' होने से लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त 'ब्व' में आगे स्थित 'इर' प्रत्यय के 'इ' की संधि; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो प्रत्यय की प्राप्ति होकर गधिरो रूप सिद्ध हो जाता है। रेखाधान संस्कृत विशेषरण रूप है। इसका प्राकृत रूप रेहिरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १.१८, से 'ख' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति -१५४ से 'वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'कान' के स्थान पर प्राकृत
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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