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*प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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में 'इरादेश; १-१० से प्राप्त 'ह' में रहे हुए 'श्रा' का आग प्राप्त 'घर' प्रत्यय में स्थित 'इ' होने से स्नोप; १-५ से प्राप्त हलन्त 'ह' में प्रागे स्थित 'इर' प्रत्यय के 'इ' की संधि; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक पचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रेहिरो रूप सिद्ध हो जाता है।
धनपान संस्कृत विशेपण रूप है । इसका प्राकृत रूप धरणमणो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १.२२८ से 'न' के स्थान पर 'or' की प्राप्ति २-१५६ से 'बाला अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान' के स्थान पर प्राकृत में 'माय' आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में सि' प्रत्यय के स्थान पर 'नो राय को पारित कर दिड हो जाता है।
हनुमान संस्कूल विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप हणुमा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से प्रथम 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और २-१५६ की वृत्ति सं संस्कृत 'वाला-अर्थक' प्रत्यय 'मान्' के स्थान पर प्राकृत में 'मा' आदेश की प्राप्ति होकर हमा रूप सिद्ध हो जाता है।
धनी संस्कृत विशेषण झप है । इसका प्राकृत रूप घणी होना है। इसमें मत्र-संख्या १-२२८ से 'न ' का 'ण' होकर धणी रूप सिद्ध हो जाता है।
आर्थिक संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप अविलो होता है। इसमें सूत्र संख्या २-56 से 'र' का लोप; CE से लोप हुए 'र' के पश्चान शेष रहे हुए 'थ' को द्वित्व थ थ, की प्राप्ति; २-६० से प्राप्त हुए 'प्रथम' 'थ' के स्थान पर 'तू' की प्राप्ति; १-७% से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अस्थि भो रूप सिद्ध हो जाता है ॥२.१५६।।
तो दो तसो वा ॥२-१६०॥ तसः प्रत्ययस्य स्थाने तो दो इत्यादेशौं वा भवतः । सव्वत्तो सन्बदो। एकत्तो एकदो। अनत्तो अन्नदो । कत्तो कदो । जत्तो जदो । तसो तदो । इत्तो इदो ॥ पक्षे मचओ इत्यादि ।
अर्थ:-संस्कृत में-'अमुक से' अर्थ में प्राप्त होने वाले 'तः प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'सो' और 'दो ऐसे ये दो आदेश वैकल्पिक रूप से प्राप्त हुश्रा करते हैं। जैसे:--सर्वतः मध्वत्तो अथवा सददी । बकल्पिक पक्ष में 'सव्वो ' भी होता है। एकतः = एकसों अथवा एकदो। अन्यतः = अन्नत्तो अथवा अन्नदो। कुतः कत्तो अथवा कदी । यतःजत्तो अथवा जदी। ततः ततो भषवा तदो। इतः -इत्तो अथवा इदो । इत्यादि।
सर्वत: संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप सध्वत्तो, सध्वदो और मध्वश्री होते हैं। इनमें से प्रथम दो रूपों में सूत्र-संख्या २-७६ से 'र' का लोप; २.८८ से लोप हुए 'र' के पश्चात शेष बचे हुए