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________________ * प्राकृत व्याकरण * अजिसं अथवा उसभमनिर्थक बरवे । इस उदाहरण में यह व्यक्त किया गया है कि प्रथम अवस्था में 'उसमें में पदान्त 'म् ' का अनुस्वार कर दिया गया है और हिलीय अवस्था में 'उसमममिम' में पदान्त 'म' की स्थिति ययावत कायम रमली भाकर उसमें आगे रहे हुए 'भ' स्वर को संधि-सपोजमा कर की गई है। एवं भूत्रसंध्या १-११ से 'म' के लिये प्राप्तव्य लोप स्थिति का अभाव भी प्रदर्शित कर दिया गया है। यों पदान्त 'म'को सम्पूर्ण स्थिति को ध्यान में रखना चाहिये । पलक अधिकार से भी कभी पात में स्थित 'म'के अतिरिक्त अन्य हलन्त व्यन्जनको स्थान पर भी अनुस्वार की प्राप्ति हो जाया करती है । जैस: साक्षात सक्छ; यत् = मं; तत्त इन उदाहरणों महसन्त 'त' व्यसनम के स्थान पर अनुम्बार को प्राप्ति प्रचशित की गई है। अन्य उदाहरण इस प्रकार हैदिया पीसु, पृथक् = विहं सम्यक सम्म'; ऋधक - प्रहं । इन बाहरणों में हलन्त 'क' पञ्जन के स्थान मावारीमाति जय हो गई । संस्कृत शब 'ह' के प्राकृत रूपान्तर 'सहर' में किसी भी व्यम्जन के स्थान पर 'अनुस्वार' को प्राप्ति नहीं हुई है, किन्तु सूत्र-संख्या १-२६ से अन्य तृतीय स्वर 'अ' में आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति हुई है। इसी प्रकार में संस्कृत रूप माइलेक्ट्रम के प्राकृत पान्तर 'भालेट,में सूत्र-संध्या २-१६४ से पास 'म' के पूर्व राधक-प्रत्यय-क' की प्राप्ति होकर 'भाले? अं रूप का निर्माण हुआ है। तदनुसार इस हलन्त अन्त्य 'म' साजन के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति हुई है। यों 'पदान्त 'म' और इससे संबंधित अनुस्वार' संबंधी विशेषताओं को ध्यान में रखना प्राहिये। ऐसा तात्पर्य वृत्ति में उल्लिखित 'इत्यावि' शब्द से समझना चाहिये। व संस्कृत रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप भी बच्चे ही है। इसमें सूत्र संख्या ४.२३९ से हलन्स शन 'बन्द' में विकरण प्रत्यय 'अ' को प्राप्ति, ४-४४८ से बर्तमान काल के तृतीय पुरुष के एक बयान में संस्कृत को मात्मने पर-क्रियाओं में प्राप्तम्य प्रत्यय 'इ' की प्राकृत में भी 'इ' की प्राप्ति और १-१ में स्म बिकरण प्रत्यय के साथ प्राप्त कास-बोधक प्रत्यय 'र' को संधि होकर पन्दे मप सिद्ध हो जाता है। ऋषभम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप उसमें होता है। इसमें सूत्र-संस्का-१-१३१ से ''के स्थान की प्राप्ति 1-२६. सेब के स्थान पर 'स' की प्राप्ति, ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एक वचन में प्रत्यय को प्राप्ति और १.२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर वसभं रूप सिद्ध हो जाता है। अजितम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत का अजिअं होता है। इसमें सूत्र-मख्या १-१७७ से 'त्' का होप; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एक पचन में 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और ! १३ से 'म' का अनुवार होकर जिअं रूप सिद्ध हो जाता है। को मि-सीमा उसभमनिर्भरूप में सूत्र संख्या १-५ से हलास-भ में आ रहे ए ' होकर संवि-प्रात्मक पर 'उसभमणि सिबोजाता है।
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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