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________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४६ उतर:-यवि अमुस्वार के आगे वर्गीय अक्षर नहीं होकर कोई घर अपवा अमर्गीय-व्यञ्जन आया हमा होगा तो उस अनस्यार के स्थान पर किसी भी वर्ग का-('म्' के अतिरिक्त) पंचम असर नहीं होगा; इसलिये 'वर्ग' शव का भार-पूर्वक उल्लेख किया गया है । उदाहरण इस प्रकार है-संशय -संसओ और संहरति-संहरह; इत्यादि । किन्ही किन्ही-डयाकरणाचार्यों का मत है कि प्राकृत-भाषा के शब्दों में रहे हुए अमुस्वार को स्थिति नित्य 'अनुस्वार रूप ही रहती है एवं उसके स्थान पर वर्गीय पंचम-अशर की प्राप्ति असी अवस्था नहीं प्राप्त हुआ करती है। पंकः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप पङ्को और पंको होते है। इनमें पत्र संख्या १-२५ मे हलम्त '. के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति, १-३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर 'भ' देशस्पिक रूप से और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बच्चन में अकारात पुस्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर मो' प्रस्थय को प्राप्ति होकर कम से दोनों पर पंको तथा पंको सिद्ध हो जाते हैं। . शंख: संस्कृत रूप है । इसके प्राहस रूप सङ्को और संधी होते हैं । इनमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' प्राप्ति मोर शेष सापनिका उपरोक्त पंको-पंकों के अनुसार हो १-२५॥ १-३० और ३.२ से प्राप्त होकर कम से दोनों रुप संलो और संखो सिद्ध हो जाते हैं। अङ्गणम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप अङ्कणं और अंगण्य होते हैं । इममें सूत्र-सल्या १-२५ सेहतात 'क' के स्थान पर अनुस्वार को प्राप्ति; १.३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर कल्पिक रूप से, हलन्त व्यंजन की प्राप्तिः३-२५ से प्रपमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्ररदय रे स्थान पर 'म' प्रत्यय को प्राप्ति और१-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार को प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप अक्षण और अंगणं सिद्ध हो जाते हैं। लगम् संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप लङ्कर्ष और लंधणं होते है। इन में अत्र-संख्या १.२२८ से '' के रघाम पर 'ग' को प्राप्ति और शेष साधनिका उपरोक्त अङ्गण-अगणं, के अनुसार हो १.२५, १-३०, ३-२५ और १-२३ से प्राप्त होकर कमाः दोनों रूप लक्षण और लंधणं सिद्ध हो जाते हैं। कन्षुकः संस्कृत रूप है । इस के प्राकृत रूप को और कंजुओ होते है। इनमें सूत्र संख्या १-२५ से हलन्त 'म' के स्थान पर अनुस्वार को प्राप्ति, १-३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हलन्त 'अ' व्यजन की प्राप्ति, १.१७ से 'क' का लोप और ३-२ स प्रथमा विभक्ति के एक वचम में प्रकाराम्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'शो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कम से दोनों पकनुओ और कंनुओ सिद्ध हो जाते हैं। लान्छमम संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप लम्छक और लंछणं होते हैं। इनमें पूत्र-संख्या १.८४ से 'ला' में स्थित 'आ' के स्थान पर ,अ' की प्राप्ति; १-२५ से हलन्त '' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; {-10 से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हलन्त 'म' म्यजन को प्राप्ति; १-२२८ से र' के स्थान पर की
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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