SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 231
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * २०७ उत्तर---क्योंकि श्रादि रूप से स्थित 'प्' का लोप होता हुआ भी देखा जाता है। जैसे-पर-पुष्टः परजट्टो॥ शपथः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सबहो होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स; १-२३१ से 'प' का 'ब'; १-१८७ से 'थ' को 'ह' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सबहो रूप सिद्ध हो जाता है। झापः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप साचो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १-२३१ से 'प' का 'व' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के HER पर 'सोसाय की मान होकर साशो का सिद्ध हो जाता है। पर-पुष्टः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप पर-उट्ठो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'प' का लोप; २-३४ से 'ष्ट का 'ठ २-८ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'छ'; २-६० से प्राप्त पूर्व '' का 'ट्' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पर-उढोप सिद्ध हो जाता है । ॥ १-५७६ ॥ अवणों य श्रुतिः ॥ १-१८० ॥ ... क ग च जेत्यादिना लुकि सति शेषः अवर्णः अवर्णात् परो लघु प्रयत्नतर यकार अतिर्भवति ॥ तित्थयरो । सयद । नयरं । मयको । कयग्गहो । कायमणी । रयर्य । पयावई रसायलं । पायालं । मयणो । मया । नयणं । दयालू । लायएणं ।। अवर्ण इति किम् । स उणो । पउणो । पउरं । राईवं । निहो। निनी । बाऊ । कई ॥ अवर्णादित्येव । लोअस्स । देअरी ।। क्वचिद् भवति । पियइ । अर्थ:-क, ग, च, ज इत्यादि व्य-जन वर्गों के लोप होने पर शेष 'अ वर्ण के पूर्व में 'श्र अथवा श्रा' रहा हुअा हो तो उस शेष 'अ' वर्ण के स्थान पर लघुतर प्रयत्न वाला 'य' कार हुआ करता है। जैसे-तीर्थकरः तिरथयरो । शकटम् मयढं । नगरम्-नयरं । मृगाकः मयको । कच-ग्रहः-कयमाहो । कामणिः कायमणी । रजतम-रययं । प्रजापतिः पयावई । रसातलम्-रसायलं । पातालम-पायालं । मदनःमयणो । गदा-गया । नयनम् नयणं । दयालुःयालू । लावण्यम् लायएणं ।। प्रश्नः-लुप्त व्यन्जन-वर्गों में से शेष ' वर्ण का ही उल्लेख क्यों किया गया है ? उत्तरः-क्यों कि यदि लुप्त व्यञ्जन वर्णो में 'अ' स्वर के अतिरिक्त कोई भी दूसरा स्वर हो; तो उन शेष किसी भी स्वर के स्थान पर लघुतर प्रयत्न वाला 'य' कार नही हुआ करता है। जैसे:-शकुनः= सउणो । प्रगुणः पजणो । प्रचुरम् परं । रोजीवम् राईवं । निहतः निहो। निनदः-निनो । वायु:पाऊ । कतिः-कई ॥
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy