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________________ [ ३५५ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित संस्कृतरूप है। इसके रूप बहमई और बहरफई होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१५६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति २-६६ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्प' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति २-८६ से प्राप्त 'स' को द्वित्व 'रस' की प्रामि १-१७० से 'तू' का लोप और ३-६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में इकारन्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ'को दीर्घ स्वर 'ई' को प्राप्ति होकर प्रथम रूप बहस्सई सिद्ध हो जाता है। द्वित्तीय रूप हफई की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३८ में की गई हैं। बृहस्पतिः संस्कृत रूप हैं। इसके प्राकृत रूप भयरसई और भयाफई होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-९२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-१३७ से प्राप्त 'यह' के स्थान पर विकल्प से 'भय' की प्राप्ति २-६६ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्प' के स्थान पर 'स' की विकल्प से प्राप्ति २-८६ से प्राप्त 'स' को द्वित्व 'रस' की प्राप्ति १-१७७ से 'तू' का लोप और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हृम्य स्वर 'इ' को दीर्घं स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप भई सिद्ध हो जाता है । ***** द्वितीय रूप (बृहस्पतिः = ) भयफई में सूत्र संख्या १-९२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २- १३७ से प्राप्त 'मह' के स्थान पर विकल्प से 'भय' की प्राप्ति २-५३ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्व' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति २६ से प्राप्त 'फ' को द्वित्व 'फ्फ' को प्राप्तिः ९-९० प्राप्त पूर्व 'फ' को 'प' को प्राप्ति १-१७७ से 'तू' का लोप और ३-५६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ 'ई' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप भवप्फई भी सिद्ध हो जाता है । वनस्पतिः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप वसई और वणकई होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' का 'ण' २-६६ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्प के स्थान पर विकल्प से 'स' की प्राप्ति २-८६ से प्राप्त 'स' को द्वित्व 'एस' की प्राप्ति १-१७७ से 'तू' का लोप और '३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप वणस्सई सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप ( बनस्पत्ति: = ) वणफई में सूत्र - संख्या - १-२२८ से 'न' का 'ण'; २-५३ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्प' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति; २०५६ से प्राप्त 'फ' को द्रित्व 'फफ' को प्राप्ति २९० से प्राप्त पूर्व 'फू' को 'प' की प्राप्ति और शेष साधनिको प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप erteई सिद्ध हो जाता है ।। २-६६ ॥ वाष्पे हो क्षणि ॥ २७० ॥
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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