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________________ * प्राकृत व्याकरण * रूप से रही हुई हों तो उस 'ऋ' के स्थान पर 'रि' का श्रादेश होता है । जैसे-ऋद्धिः-रिद्धी । ऋनःरिफ्लो । रिद्धी शब्द की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२८ में की गई है। ऋक्षः संस्कृत रुप है। इसका प्राकृत रुप रिच्छी होता है। इसमे सूत्र-संख्धा-१--१४० से 'ऋ' की 'रि'; २-१६ से 'क्ष' का ''; २-८ से प्राप्त 'छ' का द्वित्व 'छ.छ': २-६० से प्राप्त पूर्व 'छ' का 'च् और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्रामि होकर रिच्छो रुप सिद्ध हो जाता है। ऋणज्षभत्वृषौ वा ॥ १-१४१ ।। ऋण ऋजु ऋषभऋतु ऋषिषु ऋतो रिर्वा भवति ।। रिणं अणं । रिज्ज उज्जू . रिसहो उसहो । रिऊ उऊ । रिसी इसी ॥ अर्थ:-ऋण, ऋजु, ऋषम; ऋतु और ऋषि शब्दों में रही हुई 'ऋ' की विकल्प से रि होती है । जैसे-ऋणम् =रिणं अथयो अणं । ऋजुः रिज्जू अथवा अजू । ऋषभः =रिसहो अथवा उसो । ऋतुः =रिऊ अथवा उऊ । ऋषिः =रिसी अथवा इसी ।।। ऋणम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप रिण अथवा अर्ण होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१४१ से 'भू' की विकल्प से 'रि'; ३- ५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में ''ि प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होक रिणं रूप सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप अणे में सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' का 'अ' और शेष साधनिका प्रथम रूप वत् जानना।। ऋजुः संस्कृत विशेषण है । इसके प्राकृत रूप रिज्जू और उज्जू होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या-१-१४१ से '' की विकल्प से 'रि'; २-८E से 'ज्' का द्वित्व 'ज्ज' और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' का दीर्घ स्वर 'ऊ' होकर रिज्जू रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में मूत्र संख्या १-१३१ से 'ऋ' का 'उ'; शेष साधनिक प्रथम रूपवत् जानना । ऋषभः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप रिसहो और उसहो होते हैं । इनमें सूत्र संख्या १-४१ से 'ऋ' की विकल्प 'रि'; १-२६० से 'ष' का 'स'; १-१५७ से भ' का 'ह'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्डिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रिसाहो रूप सिद्ध हो जाता है। उमहो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३१ में की गई है। मतुः संस्कृत विशेषण है । इसके प्राकृत रूप रिऊ और उऊ होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-४१ से 'ऋ' की विकल्प से 'रि'; १-७७ से 'त्' का लोप; और ३-६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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