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________________ १८ ] * प्राकृत व्याकरण * लोप होने पर उपपत्त स्वर रूप 'ज' के साथ संधि का अभाव प्रदशित किया गया है । यो 'जन्स-रबर' की स्थिति को जानना चाहिये। ऊपर पत्र की वृत्ति में उद्धृत प्राकृत-गाथा का संस्कृत-रूपान्तर इस प्रकार है: विशस्यमान-महा पशु-दर्शन-संग्रम-परस्परारूढाः॥ गगने एवं गन्ध-पुटीम् कुर्वति तप फौल-नायः।। अर्थ-कोई एक रमांक अपने निकट के व्यक्ति को कह रहा है कि-'तुम्हारी ये उम-संस्कारों वाली स्त्रिया इम बसे सके पशुओं को मारे जाते हुए देख कर घसाई हुई एक दूसरे की मोट में पाने परस्पर में छिपने के सिमे प्रयत्न करती हुई (और अपने पित की इस धूवामय बीस हटाने के लिये) आकाश में हो (अर्थात् निरापार रूप से ही मानों) गन्ध-पात्र (को रचना करने जैसा प्रयत्न ) करती है (अथवा कर रही है) काल्पनिक-चित्रों की रचना कर रही है। उत्त-स्वरों की संथि-अभाव-प्रवर्शक कुछ उदाहरण इस प्रकार है-निशाचरः = निसा-अरो; निशाचरनिसि-भरो; रजनी-पर: = रयणी-अरो; मनुजत्वम् :- मणुअत्तं । इन उदाहरणों में 'घ' और 'इ' का लोप होकर 'अ' स्वर को उछृत्त स्वर को संज्ञा प्राप्त हुई है और इसी कारण से प्राप्त उद्वस स्वर 'अ' की संघि पूर्वस्य स्वर के साप नहीं होकर उत्त-स्वर अपने स्वरूप में हो अवस्थित रहा है। यों सर्वत्र उवृत्त स्वर की स्थिति को समझ लेना पाहिये । 'बहुल' सूत्र के अधिकार से कभी कभी किसी किसी शब्द में उत्त स्वर की पूर्वस्व घर के साथ कल्पिक रूप से संधिशोती हई देखी जाती है। जैसे-कम्भकारः कुम्भ-आरो-अथवा कुम्भारो। सु-पुरुषः = सु-उरिसो= अथवा सूरिसो । इन उदाहरणों में बढ़त स्वर को वैकल्पिक रूप से मंधि श्वशित की गई है। किन्ही किन्ही शम्बों में उदवृत्त स्वर की संधि निश्चित रूप से भी पाई जाती है। जैसे-शातवाहनः = साल + आगो - सालाहणो और चक्रवाकः = चक्क + माओ=सरकाओ । इन उदाहरणों में उदयत स्वर की संधि हो गई है । परन्तु सर्व-सामान्य सिद्धान्त यह निश्चित किया गया है कि उद्दत स्वर की संधि नहीं होती है। तवनुसार यदि अपवाद रूप से कहीं कहीं पर उस सवृत्त स्वर की संधि हो जाय तो ऐसी अव था में भी उस उदवृत्त स्वर का पृथा अस्तित्व अवश्य समझा जाना चाहिये और इस अपेक्षा से उस उद्धृत्त स्यर को 'भिमत्व' पद वाला ही समझा जाना चाहिये । विशस्यमान संस्कृत विशेषण-रूप है । इसका प्राकृत रूप विससिज्जन्त होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; ३-१६० से संस्कृत की भाय-कर्म-विधि में प्राप्तम्य प्रत्यय 'य' के स्थान पर प्राकृत में 'इज्म' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१८१ से संस्कृत में प्राप्तव्य वर्तमान-कृदन्त-विधि के प्रत्यय 'मान' के स्थान पर प्राकृत में 'म्त' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विससिज्जन्त रूप सिद्ध हो जाता है। महा-पशु-दर्शन संस्कृत पाक्यांपा है। इसका प्राकतरूप महा-पसु-सण होता है। इसमें सूत्र-संस्पा १-२६० से प्रथम "श" के स्थान पर "स" की प्राप्ति १-२६ से "" पर भागम कप मनुस्वार की प्राप्ति २-७९ से
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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