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मूल शब्द साक्षिन में स्थित अन्य प्राकृत में 'गो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सक्खिणो रूप सिद्ध हो जाता है।
* प्राकृत व्याकरण *
न्' में प्राप्त ) प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में 'जन्' प्रत्यय के स्थान पर
जन्म संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप जम्मणं होता है। इसमें सूत्र- पंख्या २-६१ से 'म' स्थान पर 'म' की प्राप्तिः २०८९ से प्राप्त 'भ' के स्थान पर द्वित्व म' को प्राप्तिः २ १७४ से प्राप्त रूप 'जन्म' मे अन्य स्थान पर 'ग' का आगम कर निपाल ३०२५ से प्रथमा विभक्ति एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रस्थय के स्थान पर '' प्रत्यय की प्राप्ति र १-२२' का अनुस्वार होकर जम्मर्ण रूप सिद्ध हो जाता है ।
महान संस्कृत विशेषण रूप है । इसका देशज प्राकृत रूप महन्ती होता है। इसमें सूत्र संख्या ९-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' को २१०४ से प्राप्त रूप 'महन के अन्त में आगमप'' का निवास और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर महन्तो रूप सिद्ध हो जाता है ।
भवान् संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप भक्ती होता है | इसको साधनिका उपरोक्त महान महन्त रूप के समान ही होकर भवन्तो रूप सिद्ध हो जाता है ।
आशी संस्कृत रूप है। इसका देश प्राकृत रूप आसीसा होता है। इसमें सू-१-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति १-११ से अन्य ध्यज्जन रूप विसर्ग का लोन २-२७४ से प्राप्त रूप 'असो' के अन्त में मागम रूप 'सू' का निपात और २-३१ की वृत्ति से एवं हेम व्याकरण २-४ सेलिंग अर्थ में अन्त में 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आसीसा रूप सिद्ध हो जाता है ।
२-१२६ से २-१७४ मे 'ह' के स्थान पर द्विव
१-१८० से हुए के एकवचनम अकात नपुंसकलिंग
बृहतरम संस्कृत विशेषण रूप है। इसका बेशन प्राकृत रूप बहुवरं होता है इसमें 'शु' के स्थान पर 'अ' को प्राप्ति १-२३७ से 'ब' के स्थान पर व' की प्राप्ति '' की प्राप्ति २-७७ से प्रथम हलन्त 'त्' का लोप १-१७७ से द्वितीय 'तुका रहे हुए' के स्थान पर 'य' को प्राप्ति ३२ विभक्ति
पश्चात्
में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर में प्रत्यय की प्राप्ति और १-२२ से प्राप्त म्' का अनुस्वार होकर वड्डयरं रूप सिद्ध हो जाता है।
हिमोर संस्कृत रूप है। इसका वेशअ प्राकृत रूप भिमोरी होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से 'ह' के स्थान पर 'भ' की प्राप्ति और ३-२ मे प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में सि' स्वय के स्थान पर 'ओ' प्रश्यय की प्राप्ति होकर भिमोरो रूप सिद्ध हो जाता है ।
क्षुल्लकः संस्कृत विशेषण रूप हूं। इसका प्राकृत रूप बुडुओ होता है । इसमें सूत्र संख्या २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति २-१७४ से द्विर हेल' के स्थान पर द्विस्व 'ड' की प्राप्ति १-१७७ से ''कालोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति !
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