________________
* प्राकृत व्याकरण *
Har
p
ort--
-
-
-
द्वितीय रूप-(श्रादर्शः - ) आयंसी में सूत्र-संख्या ५.२७७ से 'दू' का लोप; १-१८० से लोप हुए द' में से शेप रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति १-२६ से प्राप्त 'य' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति;२-७६ से २ का लोपः १-२६० से 'श' को 'स' की प्राप्ति और ३-२ प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप आयसो भो सिद्ध हो जाता है।
: सुवर्शन संस्कृत विशेषण रूप है । इसमें प्राकृत रूप सरिसणो और सुदसणो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-१०५ से हलन्त व्यञ्जन र में आगम रूप 'इ' की प्राप्तिः १-.६. से 'श' को 'म' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' को 'ण' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप मुदरिसणी मिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(सुदर्शनः =) सुदसणी में सूत्र-संख्या १-२६ से 'द' व्यञ्जन पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; :-SL से 'र' का लोप; १-२६० से 'श' को 'स' की प्राप्ति: १-२२८ से 'न' को 'ण' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वधम में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप सुदसणो भी सिद्ध हो जाता है।
दर्शनम् संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप दरिसणं और दसणं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-१०५ से हलन्त व्यञ्जन 'र' में पागम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-२६० से 'श' को 'म' की प्राप्ति; १-२.१८ से 'न' को 'ण' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' के स्थान पर अनुस्वार को प्राप्ति होकर प्रथम रूप रिसणं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(दर्शनम् =) देसणं में सूत्र-संख्या १-२६ से 'इ' व्यञ्जन पर प्रागम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-७६ से 'र' का लोप; १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' को प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में "मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनस्वार होकर द्वितीय रूप ईसणं को भी सिद्धि हो जाती है।
वर्षमसंस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप वरिसं और वासं होते हैं। इन में से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-१०५ से हलन्त व्यञ्जन 'र' में प्रागम रूप 'इ' की प्रापिः १-२६० से 'घ' के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पथम रूप परिसं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-[वर्षम् = ! वासं. में सूत्र संख्या २-5 से 'र' का लोप; १-४३ से 'व में स्थिन 'अ' स्वर के स्थान पर दीर्घ स्वर 'श्रा' की प्राप्ति; १-२६० से १' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा
auranAmerimeMORE
/de. n
etiamarathi