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________________ ७४ ] वर्षा संस्कृत है। इसका प्राकृत रूप वाला होता है। इसमें सूत्र संख्या २७९ लो १-४३ से 'व' के 'अ'का 'ना' १-२६० से '' का 'स' ३-४ से प्रथम बहुवचन में पुल्लिंग में 'जस्' प्रत्यय को प्राप्ति तथा सोप और ३-१२ से 'स' के 'अ' का 'आ' होकर वासा रूप सिद्ध हो जाता है। * प्राकृत व्याकरण वर्षः संस्कृत शब्द हूं। इसका प्राकृत रूप दास होता है। इस सूत्र संख्या २-७९ से 'कृ' का लोप १-४२ से 'व' के 'अ' का 'जा' १-२६० से 'व' का 'ख' और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में 'सि' या 'मिस' के स्थान पर 'ओ' होकर 'वास' रूप सिद्ध होता है । विष्वाणः संस्कृत शब्व है। इसका प्राकृत रूप बोसागी होता है। इसमें सूत्र संख्या सोप १-४३ से 'बि' के 'इ' की दीर्घ 'ई' १-२६० से ''का 'स' ३-२ से प्रथम के एक 'सि' अथवा विसर्ग के स्थान 'ओ' होकर वीसाणो रूप सिद्ध हो जाता 1 'दीसु' शभ्य की सिद्धि १-२४ में की गई है । निष्क्तिः संस्कृत सभ्य है। इसका प्राकृत रूप नोसिस होता है। इसमें मूत्र-संख्या खोप १-४३ से 'नि' के '' की दोघं 'ई' १-२६० से 'च' का 'स' २०७७ से 'क' का लोप पुल्लिंग के एक वचन में 'सि' अथवा 'विसर्ग' के स्थान पर 'ओ' होकर नीतितो रूप सिद्ध हो जाता है । १-१७७ से '' का वचन में पुल्लिंग में कस्यचित् संस्कृत अध्यय है। इसका प्राकृत रूप कास लोड १-४३ से '' के 'ज' का 'आ' १-१७७ से '' का लोप सिद्ध हो जाता है। २०७७ से 'व्' का ३-२ से प्रथमा में सस्यम् संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप सा होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से '' का लोप १-४३ से व्यादि 'स' के 'अ' का 'आ' ३२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक स्प्रिंग में 'सि' के स्थान पर 'म्' और १-२३ से '' का अनुस्वार होकर 'सास' कप सिद्ध हो जाता है। होता है इस सूत्र संख्या २०८ से'' का १-११ से 'तु' का कोप होकर 'कास' रूप उम्र: संस्कृत शव है। इसका परकृत रूप ऊस होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'दृ' का लोप; १-४३ से ह्रस्व 'ड' का बीघं 'क' १-२ से प्रथमा एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' अथवा बिसगं के स्थान पर 'हो' होकर उसी रूप सिद्ध हो जाता है। विश्रम्भः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप बीसम्भो होता है। इसमें सूत्र संख्या २७९ से का लोप; १-४३ से 'जि' के स्व 'ड' की बीर्थ 'ई' १-२६० से '' का 'स' ३-२ से अमा के एक वचन में पुल्लिंग में सि' अथवा 'विस' के स्थान पर 'भो' होकर पीसम्भो रूप सिद्ध हो जाता है। विकस्वर: संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप विकास होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से द्वितीय ''का १४३ से 'क' के 'ज' का 'अ' ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुदि में 'सि' भगवा '' के स्वाम पर 'ओ' होकर विकासरी कप सिद्ध हो जाता है।
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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