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________________ ५०४] * प्राकृत व्याकरण * वेख्य प्राकृत साहित्य का सदुरूपक और रुद्र अर्थक संघोषनात्मक अध्यय है; अतः साधनिका को अावश्यकता मुरन्दले संबोधनात्मक व्यक्ति वाचक संज्ञा रूप है। इसमें सत्र-संस्था ३-४१ से समोघन के एक वचन में अन्त्य 'आ' के स्थान पर 'ए' को प्राप्ति होकर मूरन्न ले रूप सिद्ध हो जाता है। पहास संस्कृत सकर्मक क्रियापक का रूप है। इसका प्राकृत रूप भी बहक्षि होता है। इसमें पत्र संख्या ४-२३६ से हलन्त रूप 'वह' में विकरण प्रत्यय रूप अ' को प्राप्ति और ५-६४० से वर्तमानकाल के एक वचन में विसीय पुरुष में "म' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वहसि रूप सिद्ध हो जाता है। पाणिभं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१०१ में की गई है ।।२-१९४।। मामि हला हले सख्या वा ॥२-१६५॥ एते सख्या आमन्त्रणे वा प्रयोक्तव्याः ।। मामि सरिसक्खराण वि ॥ पणवह माणस्य हला ॥ हले ध्यासस्स | पक्षे । सहि एरिसि पिच गई। अर्थ:--'सलि' को आमन्त्रण बेने में अथवा संबोधित करने में मामि' अथवा 'हला' अथवा 'हले' अध्ययों में से किसी भी एक अव्यय का वैकल्पिक रूप से प्रयोग किया जाता है। अर्थात् जम अव्यय विशेष का प्रयोग करना हो तो उक्स सोनों में से किसी भी एक अव्यय का प्रयोग किया जा सकता है। अन्यथा बिना अव्यय के भो "हे सरिल = सहि ! ऐसा प्रयोग भी किया जा सकता है। बाहरण इस प्रकार है:-हे (सखि) ! सहशाक्षराणाम मपिटमामि ! सरिसराणषि | प्रममत मानाय है (सलि) ! पणवह माणस्स हा । हे (सनि) ! हताशस्य = हले हयासस्स ।। पक्षान्तर में उबाहरण इस प्रकार है:-हे सखि ! ईटशी एवं गति: = सहि | एरिसि चिज गई ।। इत्यादि । 'मान' प्राकृत भाषा का संबोधनात्मक अव्यय होने से कूट-अर्थक और रुख रूपक है; अतः सापनिका को आवश्यकता नहीं है। सहशाक्षराणाम् संस्कृत पष्ठयरत रूप है। इसका प्राकृत-रूप सरिसक्लराण होता है। इसमें प्रत्र-संख्या १-१४२ से 'च' के स्थान पर 'रि' मादेश २-७७ से '' में स्थित 'द' का लोप; १.२६० से 'ज्ञ के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; १-८४ से प्राप्त 'सा' में रहे हुए बोर्ष स्वर 'आ' के स्थान पर 'ब' को प्राप्ति; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'स' को हिरवा 'रुख' को प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ब' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति; ३-६ से षष्ठी विभक्ति के बह वचन में अकारान्त पुल्लिाप अथवा नपुंसकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में '' आवेश; और ३-१२ से प्राप्त प्रत्यय 'ग' के पूर्व में स्थित 'र' में रहे हए 'अ' के स्थान पर धीर्घ क्य 'या' की प्रान्ति होकर सरिसक्खराण रूप की सिद्धि हो जाती है। "वि' अध्यय की सिदि सूत्र-संख्या १-१ में की गई है।
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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