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________________ * प्राकृत व्याकरण # होकर क्रम से दोनों कप नह- सोत-और मई-सोसं सिद्ध हो जाते है । गौरीगृहम् संस्कृत रूप हैं। इसके प्राकृत रूप गोरि-हरं और गोरो-हर होते हैं । इनमें सूत्र-संख्या १-१५९ से 'मो' के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति; १-४ से बीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हस्व 'ई' को प्राप्ति; २-१४४ से 'गृह के स्थान पर 'पर' आदेश; १.१८७ से आदेश प्राप्त 'घर' में स्थित 'घ' के स्थान पर 'ह को प्राति ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में सि' प्रश्पप के स्थान पर 'म् प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'भ' का अनुस्वार होकर दोनों छप गोरिहर भौर गीरी हर सिद्ध हो जाते हैं। वधु-मुखम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप बहु-महं और घा-महं होते हैं। इनमें सूत्रसंख्या १.१८७ से 'घ' और 'ख' के स्थान पर हैं की प्राप्ति, १-४ से प्राप्त 'ह' में स्थित हस्व स्वर 'उ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से गोर्घ स्वर 'क' को प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभिक्ति के एक वनम में अकारान्त नपुंसक लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कर से दोनों रूप पहु-मुई और बहू-मुहं सिद्ध हो जाते हैं १-४|| पदयोः संधिवा ॥१-५॥ संस्कृतोक्तः संधिः सर्वः प्राकृने पदयोंर्व्यवस्थित-विभाषया मवति ॥ बासेसी वासइसी । विसमाययो विसम-आयवो । दहि-ईसरो दहीसरो । साऊअयं साउ-उअयं ॥ पदयो रिति किम् । पाओ । पई। बच्छाओ। मुद्धाइ । मुद्धाए। महइ। महए। बहुलाधिकारात् क्वचिद् एक-पदेपि । काहिह काही । बिइप्रो बीओ॥ अर्थ-संस्कृत-भाषा में जिस प्रकार से वो परों को संषि परस्पर होती है। वही सम्पूर्व संधि प्राकृतभाषा में भी वो पदों में व्यवस्थित रीति से मिल कल्पिक रूप में होती है ।स:-पास-अधिवास सो मथवा वास-इसी । विषम + आतप विवभातप-विसमायवो अथवा विसम-आयो। वषि + ईयरा वषीश्वरःपहि-ईसरो अथवा रहीसरी । स्वायु-उवकम् स्वादरकम् साऊअयं अथवा साउ-उअयं ॥ प्रश्न:-'संधि दो पदों की होती है। ऐसा क्यों कहा गया है ? उसरः-पर्योकि एक हो पर में संधि-योग्य स्थिति में रहे हए स्वरों को परस्पर में तषि नहीं हुआ करती है; अतः दो पदों का विधान किया गया है । जैसे:-पाव = पाओ । पतिः = पई । वृक्षात् = पछाओ । मापया = भखाई अथवा मुनाए । कांशति मह अथवा महए । इन ( उदाहरणों में ) प्राकृत-हरों में संपि-योग्य स्थिति में दो हो स्वर पास में आये हुए है। किन्तु ये संषि-मोम्प स्वर एक ही पहन रहे इए है। अतः इनकी परस्पर में संधि नहीं हुई है।
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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