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________________ * प्राकृत व्याकरण * ___ अर्थ:-अभिश मावि इस प्रकार के शवों में 'झ' का 'ण' करने पर 'श' में रहे हए 'अ' का '' होता है। जैसे-अभिलः- अहिष्णु । सर्वशः = सम्वष्णू । कृताः = कयण्णू । आगमशः = आगमण्णू | 'गस्व' ऐसा ही क्यों पाहा गया है ? क्योंकि यदि 'ज' का 'ण' नहीं करेंगे तो यहां पर 'श' में रहे हुए 'अ' का 'ज' नहीं होगा । जैसे-अभिन्नःअहिज्जो । सर्वनः = सम्बयो । अभिज्ञ आवि में ऐसा क्यों कहा गया है? क्योंकि जिन शनों में 'ज्ञ' का 'ग' करने पर भी 'स' में रहे हए 'अ' का 'उ' नहीं किया गया है, उन्हें 'अभिश-आदि' शब्दों को श्रेणी में मत गिनमा । बसे-प्राशः = पणो । अतएव जिन शब्दों में 'स' का 'प' करके 'श' के 'अ' का 'उ' देखा जाता है उन्हें ही 'अभिज्ञ' आदि की श्रेणी वाला जानना। - - अभिज्ञः संस्कृत शब है। इसका प्राकृत रूप अहिष्णू होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'भ' का 'ह'; २-४२ से 'श' का ''; २-८१ से प्राप्त प' का हिट wr: १-५६ से 'or' के 'अ' का 'उ'; ३.१९ से प्रयमा के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हुस्व स्वर 'उ' का दोघं पर 'ॐ होकर 'अहिण्णू' रूप सिद्ध हो जाता है। सर्वज्ञः संस्कृत शम्ब है । इसका प्राकृत रूप सवण्णू होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७२ से 'र' का लोर २-८९ से 'व' का विश्व 'व'; २-४२ से 'क' का 'ण'; २-८९ से प्राप्त 'ण' का द्वित्व 'गण' १५६ से 'ण' के 'अ' का''; ३-१९ से प्रघमा के एक वचन में पुस्लिप में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर '' का दोई स्वर 'अहोकर 'सवण्णू' रूप सिद्ध हो जाता है। क्रतक्ष: संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप कयण्ण होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ ल' का 'अ' (-२७७ से '' का लोप; 100 से 'स' के 'अ' का 'य', २-४२ से 'ब' का 'ण'; २-८९ से प्राप्त 'क' का विरव 'ण'; १-५६ से 'ग' के 'अ'का 'उ'; ३-१९ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिा में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' का वीर्घ स्वर 'क' होकर कयण्गू रूप सिद्ध हो जाता है। ___ आगम: संरकूस शमा है । इसका प्राकृत रूप आगमण होता है। इसमें सत्र संख्या २-४२ से 'श' का 'ग'; २.८१ से प्राप्त 'ण' का द्वित्व 'ण'; १५६ से 'ग' के 'अ' का 'उ'; ३-१९ से प्रयमा के एक बचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्स्प हस्व स्वर 'इ' का दोघं स्वर '' होकर आगमण्ण रूप सिद्ध हो जाता है। अभिज्ञः सांकृत शम है । इसका प्राकृत रूप महिन्यो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'भ' का है' २-८३ से 'स' में रहे हुए 'म' का लोप; २-८९ से घोष 'ज' का द्वित्व 'ज'; ३.२ से प्रकमा के एक वचन में पुहिला में 'सि' प्रत्यय के स्पान र 'झो' होकर अहिज्जो रूप सिद्ध हो जाता है। सर्वज्ञः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप सम्बायो होता है । इसमें पूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप २०८९ से ' का द्वित्व 'थ्य'; २.८३ से 'स' में रहे हए ' का लोप; २.८९ से शेष '' का free 'ज'; ३२ से प्रमझा के एक वचन में पुल्लिम में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर सबज्जी रूप सिद्ध हो जाता है।
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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