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________________ ५२२1 . * प्राकृत व्याकरण * से'क' का लोप; १-९८० से लोप हुए 'क' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एक वचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पुलयं रूप सिद्ध हो जाता है। पर्धयन्ति संस्कृत प्रेरणार्थक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप बड्ढेन्ति होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-४० से संयुक्त व्यञ्जन 'ध' के स्थान पर '' आदेश; २-८८ से प्राप्त 'द' को द्वित्व 'ढङ' की प्राप्ति; २-१० से प्राप्त पूर्व 'ब' के स्थान पर 'ड्' की प्राप्ति, ३.१४८ से प्रेरणार्थक में प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमानकाल के बहुवचन में प्रथम पुरुष में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बदन्ति रूप सिद्ध हो जाता है। दते संस्कृत क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप देन्ति होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१४७ से द्वितीय 'द्' का लोप; ३-१५८ से लोप हुए 'द्' के पश्चात शेष रहे हुए विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति, ५-१० से प्राप्त 'ए' के पूर्व में स्थित 'व' के 'अ' का लोप, १.५ से प्राप्त हलन्त 'द्' में आगे रहे हुए 'ए' की संधि; और ३-१४२ से वर्तमान काल के बहुवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'न्ते' के स्थान पर प्राकृत में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर ट्रेन्ति रूप सिद्ध हो जाता है । प्रेरणार्थफ में 'देन्ति' की साधनिका इस प्रकार भी होती है:-संस्कृत मूल धातु 'वा' में स्थित दीर्घ स्वर 'श्री' के स्थान पर १.८४ से ह्रस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; ३-१४६ से प्रेरणा अर्थ में प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१० से प्राप्त प्रत्यय 'ए' के पूर्व में स्थित 'द' के 'अ' का लोप; १-५ से हलन्त 'द्' में 'ए' की संधि और. ३-१४२ से 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दोन्ति प्रेरणार्थक रूप सिद्ध हो जाता है। रणरणकम् संस्कृत द्वितीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप रणरणयं होता है । इसमें सत्र संख्या १-१७७ से 'क' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'क' के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर रणरणयं रूप सिद्ध हो जाता है। 'एम्हि' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १७ में की गई है। तस्य संस्कृत षष्ठ्यन्त सर्वनाम रूप है । इसका प्राकृत रूप तस्स होता है । इसमें सूत्र संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'तत्' के अन्त्य हलन्त ग्यजन 'स' का लोप; और ३-१० से षष्ठी विभक्ति कोएक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'डस् के स्थानीय रूप 'स्य' के स्थान पर प्राकृत में 'स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तस्स रूप सिद्ध हो जाता है। ति संस्कृत अव्यय रूप है । इसका प्राकृत रूप 'इअ' होता है । इसमें सूत्र संख्या १.१७७ से 'तु' का लोप और १.६१ से लोप हुएं 'तू' के पश्चात शेष रही हुई द्वितीय 'ई' के स्थान पर 'अ' को प्राप्ति होकर 'हम रूप सिद्ध हो जाता है।
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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