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________________ ३७० ] # प्राकृत व्याकरण * बतलाया गया हो- दिखलाया गया हो- उम हलन्त व्यञ्जन का लोप किया जाना चाहिये । ऐमो स्थिति में कभी कभी व्यस्चन के पूर्व में रहे हुग मयुक्न हलन्त व्यञ्जन का लोप हो जाता है। कभी कभी व्यञ्जन के पश्चात् रहे हुए सयुक्त हलन्त व्यञ्जन का लोप होता है। कभी कभी उन लोप होने वाले दोनों व्यञ्जनों का लोप क्रमसे एव पर्याय से भी होता है; यों पर्याय से- क्रमसे- लोप होने के कारण से उन संस्कृतशब्दों के प्राकृत में दो दो रूप हो जाया करते हैं । उपरोक्त विवेचन के उदाहरण इस प्रकार है:- लोप होने वाले दो ध्यञ्जनों में से पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'द' के लोप के उदाहरणः- उद्धिनः-उन्विग्गा द्विगुणः=वि-उरणो ॥ द्वितीयः बीओ । लोप होने वाले दो व्यञ्जनों में से पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'ल.' के लोप का उदाहरण:- कल्मषम् -कम्मसं । इसी प्रकार से 'र. के लोप का उदाहरणः-मर्वम् सच्चा पुन: 'ल' का उदाहरण:-शुल्बम- सुव्य' । लोप होने वाले दो व्यसनों में से पश्चात् स्थित हलन्त व्यञ्जन के लोप होने के उदाहरण इस प्रकार है: 'य' के लोप होने के उदाहरण:-काध्यम-कव्व। कुल्या कुल्ला और माल्यम् = महलं ।। व, के लोप होने के उदाहरणः--द्विपः = दिनी और द्विजाति:: . दुबाई ।। लोप होने वाला व्यञ्जनों में से दोन व्यञ्जनों का जिन शब्दों में पर्याय से लोप होता है; ऐसे उदाहरण इस प्रकार है:-द्वारम् = बारं अथवा नारं । इस जदाहरण में लोप होने योग्य '' और 'त्र' दोनों व्यञ्जनों को पर्याय से- क्रम से- दोनों प्राकृत रूपों में लुप्त होते हुए दिखलाये गये हैं इसी प्रकार से एक उदाहरण और दिया जाता है: --उद्विग्नः = उम्बिनी और उविवरणो ।। इस उदाहरण में लोप होने योग्य 'ग' और 'न.' दोनों व्यजनों को पयाय से .. क्रम से दोनों प्राकृत रूपों में लुप्त होते हुए दिखलाये गये हैं। यों अन्य उदाहरणों में भी लोप होने योग्य दोनों यजनी की लोप स्थिति समझ लना चाहिये। . प्रश्नः-'चन्द्र में स्थित संयुक्त और हलन्त 'द्' एवर के लोप होने का निषेध क्यों किया गया है? उत्तर-संस्कृत शठन 'वन्द्र' जैमा है; वैमा ही रूप प्राकृत में भी होता है; किसी भी प्रकार का वर्ण-विकार, लोप, श्रागम, आदेश अथवा द्वित्व आदि कुछ भी परिवर्तन प्राकृत-रूप में जब नहीं होता है; तो ऐसो स्थिति में जैसा-संस्कृत में वैसा प्राकृत में होने से उसमें स्थित्त 'द' अथवा 'र' के लोप का निषेध किया गया है और वृत्ति में यह स्पष्टी फरण कर दिया गया है कि- यह प्राकृत शब्द 'वन्द्र' संस्कृत शब्द 'वन्द्रम,' कं ममान ही होता है। 'चन्द्रम् शब्द के संबन्ध में यदि अन्य प्रश्न भी किया जाय तो भी, उत्तर दिया जाय; ऐसा दुसरा कोई रूप पाया नहीं जाता है; क्यों कि मूल-सूत्र में हो निषेध कर दिया गया है कि 'वन्द्रम' में स्थित हलन्त एवं संयुक्त 'दू तथा 'र' का लोप नहीं होता है इस प्रकार निषेध-आज्ञा की प्रवृत्ति कर देने से-(निषेध-सामर्थ्य के उपस्थित होने से )-किसी भी प्रकार का कोई भी वर्ण-विकार संबंधी नियम 'चन्द्रम के संबंध में लागू नहीं पढ़ता है।
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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