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________________ * प्राकृत व्याकरण * अन्तरि:अन्तावेई । सप्तविंशतिः = ससावीसा || किसी किसो शम में हस्व स्वर से वीर्घ-स्वर में परिणति नहीं भी होती है। अमे--यवति-अमः - सुबह-अणो || किसो किसी शब्द में हस्व स्वर से धोघं-स्वर में परिणति वैकल्पिक रूप से भी होती है। जैसे-वारि-मतिः - वारी-मई वारिमई भुज-यन्त्रम् = भुआ-यन्त अथवा भुअ-. यस्त ।। पति-गृहम् :: पई-हरं अश्या पइ-हरं ॥ वेणु-बनम् = वेबगं अथवा वेल-वणं । दीर्व स्वर से हुस्व स्वर में परिणत होने का उदाहरण इस प्रकार है:-नितम्ब-शिला-स्खलित-वीचि-मालस्यनिअम्ब-सिल-खलिम-वीइ-मालस्त । इस उदाहरण में 'शिला' के स्थान पर 'सिस' की प्राप्ति हुई है। किसी किसी शक्ल में वीर्घ स्वर से हस्व स्वर में परिणति वैकल्पिक रूप से भी होतो है । उदात्रण इस प्रकार है: यम ना-तटम् = जउँण-यई अथवा जउँगा-पडं || नहो-खोतम = नइ-सोत्तं अथवा नई-सोतं || गौरी गृहम = गोरि-हर अथवा गोरो-हरं । वधू-म खम - बहु म अथवा बहू-महं ।। इन उपरोक्त सभी उदाहरणों में दीर्घ स्वरों की और हस्व स्वरों की परस्पर में व्यत्यय-स्थिति समझ लेनी चाहिये । ___ अन्तदिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप अन्तावेई होता है। इसम सूत्र-संख्या १-४ से 'त' में स्थित हृस्व स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से 'ब्' का लोर और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में हुस्व इकारान्त स्त्री लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' को प्राप्ति होकर अन्ताई रूप सिद्ध हो जाता है। सप्तविंशतिः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सत्तावीसा होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-७७ से '' का लोप; १-४ से 'त' में स्थित हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति २.८९ से प्राप्त 'ता' के पूर्व में '' का लोप होने से द्वित्व 'त्ता' को प्राप्ति; १.२८ से 'वि' पर स्थित अनुस्वार का लोप; १-९२ से शेष 'वि' में स्थित हस्व स्वर''के स्थान पर 'ति' का लोप करते हुए दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति; १-२६. से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बल बबर में प्राप्त 'जस्' प्रत्यय का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के कारण से अन्त्य 'स' में स्थित हुण्य स्वर 'अ' के स्थान पर वीर्घ स्वर 'या' को प्राप्ति होकर सत्तावीसा रूप सिद्ध हो जाता है। युवति-जनः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप जुबइ-अणो होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-२४५ से 'य' के मान पर 'ज' को प्राप्ति, १-१७७ से 'त्' का और (द्वितीय) 'ज्' का लोप; १-२२८ मे 'न' के स्थान पर 'ण' को प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिा में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जुबइ-अणो कम सिद्ध हो जाता है । वारि-मतिःहत रूप है । इसके प्राकृत रूप वारोमई, और वारि-मई होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-४ से 'रि' में रियत '' को वैकल्पिक रूप से दीर्घ 'ई' को प्राप्ति; १-१७७ से '' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में हस्थ इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के पान पर हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' को प्राप्ति होकर कम से धोनों रूप वारी-मई और मारि मई सिद्ध हो जाते है । भुज-यन्त्रम् संकृत रूप है । इसक प्राकृत रूप भा-यन्तं और भु अ-पन्त होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१७७ से ' का लोप, १-४ से शेष 'अ' को वैकल्पिक रूप से 'आ' को
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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