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________________ ४८२) 2 प्राकृत व्याकरण * भृष्टाः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत .प घटठा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२६ से '' के स्थान पर 'अ' को प्राप्ति; २-३४ से 'ष्ट्' के स्थान पर को प्राप्ति; २.८९ मे प्राप्त 'इ' को द्विरक 'इ' को प्राप्ति; २.९० से प्राप्त पूर्व ह' के स्थान पर 'ट्' की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के मह वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति होकर इसका लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस' प्रस्पय के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'अ'को दीर्घ स्वर 'आ'को प्राप्ति होकर घरठाप सिद्ध हो जाता है। मृष्टाः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप मट्ठा होता है। इसकी साधानका उपरोक्त धृष्टाः = घा रूप में प्रयुक्त सूत्रों से होकर मट्ठा रूप सिद्ध हो जाता है। विद्वांसः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप विउसा होता है । इसमें सूत्र संख्या २.१७४ से विद्वान अयन्त्रा "विस्' के स्थान पर 'विउस' रूप का निपात; २-४ से प्रथमा विभक्ति के अनु वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति होकर इसका लोप और ३.१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'अ' को योध स्वर आ' की प्राप्ति होकर चिंउसा रूप सिद्ध हो जाता है। श्रत-लक्षणानुसारणं संस्कृत वाक्यांश रूप है। इसका प्राकृत रुप सुअ-लश्खमाणसारेण होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'भू' में स्थित 'र' का लोप; १२६० से लोप हुए 'र' के पश्चात शेष रहे हए 'श' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति १-१७७ से 'त' का लोप; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति, २.८९ से प्राप्त Bएको विस्व '' को प्राप्ति; २०१० से प्राप्त हुए पूर्व 'ख' के स्थान पर 'क' को प्राप्तिः १.२२८ से 'न्' के स्थान पर 'ग' को प्राप्ति ३-६ से तृतीया विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में संस्कृत प्रत्यय टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१४ से प्राप्त प्रत्यय रूप 'ण' के पूर्व में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर "ए' को प्रारित होकर मुझ लक्खणाणुसारेण रूप सिद्ध हो जाता है। वाक्यान्तरेषु संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप वरकन्तरेसु होता है । इसमें सूत्र संख्या १.८४ से प्रथम बोध स्वर 'आ' के स्थान पर हुस्व स्वर 'अ' को प्राप्ति, २०७८ से 'य' का लोप; २.८९ से लोप हए 'य' के पश्चात् शेष रहे हए 'क को द्वित्व 'क्क को प्राप्ति १-४ से प्राप्त 'का' में स्थित वीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'म' की प्राप्ति; १-२६० से '' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति अपवा ३-१५ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्सिग में प्राप्त प्रत्यय 'सुप्-सु' के पूर्व में स्थित अपत्य 'अ' के स्थान पर 'ए' को प्राप्ति होकर पक्कन्तरेसु रूप सिद्ध हो जाता है । 'अ' अव्यय की सिदि सूत्र-संख्या १-१७७ में की गई है। पुनः संस्कृत अध्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप पुणो होता है। इसमें पत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्पान पर 'ज' की प्राप्ति और १-३७ से वितर्ग के स्थान पर 'श्री-बो को प्राप्ति ; प्राप्त वर्ण'ओ' में '' इरसंज्ञक होने से पूर्व में स्थित 'न' व्यऊजम के अन्त्य 'अ' की इत्संशा; एवं १.५ से प्राप्त हलन्त 'म्' में विसर्ग स्थानीय 'ओ' की संधि होकर पुणो रूप सिद्ध हो जाता है ॥२-१७४।।
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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