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________________ ३१. ] * प्राकृत व्याकरण * उस समय में प्राकृत-रूपान्तर में 'क्षमा' में स्थित्त 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति होगी; और जब 'क्षमा' शब्द का अर्थ सहन-शीलता यान क्षान्ति होता है; तो उस समय में 'क्षमा' शब्द में रहे. हुन 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति होगी । इस तात्पर्य-विशेष को बतलाने के लिए हो सूत्र-कार ने मूल-सूत्र में 'को' शब्द को जोड़ा है-अथवा लिखा है। जैसे:-क्षमा=(क्षान्तिः ) खमा अर्थात सहन-शोलता || क्षमा (पृथिवी ) संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप छमा होना है इसमें सूत्र-संख्या-२-१८ से संयुक्त व्यञ्जन 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति होकर छमा रूप सिद्ध हो जाता है। क्षमा (पथिवी ) संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप छमा होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१८ से हलन्त और संयुस्त व्यक जन 'च' के स्थान पर हलन्त छ' की प्राप्ति; २-१०१ से प्राप्त हलन्त 'क' में 'अ' स्वर की प्राप्ति होकर छमा रूप सिद्ध हो जाता है । क्षमा-(शान्ति ) संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप खमा होता है । इसमें सूत्र-संख्या-२-३ से संयुक्त व्यन्जन 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति होकर खमा रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१८ ॥ ऋक्ष वा ॥ २-१६ ॥ ऋक्ष शब्दे संयुक्तस्य लो वा भवति ॥ रिच्छं । रिक्वं । रिच्छो । रिक्खो ॥ कथं छुट क्षिप्तं । वृक्ष-शिमयो रुक्ख-छूती ( २-१२७ ) इति भविष्यति ॥ अर्थ:-ऋक्ष शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'च का विकल्प से 'छ' होता है । जैसे:-प्रतम्-रिकछ अथवा रिक्खं ।। ऋक्षः रिच्छो अथवां रिक्खो । प्रश्नः- क्षिरम विशेषण में रहे हुए स्वर सहित संयुक्त व्यञ्जन क्षि के स्थान पर 'कू' कैसे हो जाता है ? एवं क्षिप्तम्' का 'हृढ' कैसे बन जाता है ? उत्तर:-सूत्र-संख्या २-१२७ में कहा गया है कि 'वृक्ष' के स्थान पर 'रुक्ख' आदेश होता है और "तित' के स्थान पर 'कृढ' आदेश होता है । ऐसा उक्त सूत्र में आगे कहा जायगा ।। ऋक्षमः-संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप रिच्छे और रिनखं होते हैं । इसमें सूत्र-संख्या १-१४, से '' की 'रि' प्रथम रूप में २-१६ से 'क्ष' के स्थान पर विकल्प से 'छ'; २.८४ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ छ' की प्राप्ति; 2 से प्राप्त पूर्व 'छ' को 'च' की प्राप्ति; ३-२५ से पथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप रिच्छ सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप में सुत्र-संख्या २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २.८६ से प्राप्त 'ख' को द्वित्य 'ख' की; २०६० से प्राप्त पूर्व 'ग्व' को 'क' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप रिक्वं सिद्ध हो जाता है।
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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