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________________ ४५२ * पाकृत व्याकरण * आदेश १-१० से लोप हुए 'यौं में से शेष 'आ' का आगे स्थित 'इल्ल' की 'इ' होने से लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर छाइल्लो रूप सिद्ध हो जाता है। यामवान संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप जामहल्लो होता है। इसमें सूत्र-संख्या१-२४५ से 'य् के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-१५६ से 'बाला-अर्थक संस्कृत प्रत्यय 'वान के स्थान पर प्राकृत में 'इल्ल' आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जामइल्लो रूप सिद्ध हो जाता है। विकारवान् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप विश्रारुल्लो होता है । इसमें मूत्र-संस्त्या १-१७७ से 'क' का जोप; २-१५६ से 'वाला-श्रर्थक' संस्कृत-प्रत्यय 'वान्' के स्थान पर प्राकृत में 'उल्ल' आदेश; १-१० से 'र' में स्थित 'अ' का आग स्थित 'जल्ल' का 'उ' होने से लोप, १.५ से 'र' में 'उ' की संधि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विआरुल्लो रूप सिद्ध हो जाता है। इमश्रवान् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप मंसुल्लो होता है। इसमें सूत्र-संख्या२-७७ से हलन्त व्यञ्जन प्रथम 'श' का लोप; १-२६ से 'म' पर पागम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-56 से 'अ' में स्थित 'र' का लोप; १-२६० से लोप, हुप 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'शु' के 'श' को 'स' की प्राप्ति; २-१५६ से वाला अर्थक संस्कृत-प्रत्यय 'वान' के स्थान पर प्राकृत में 'चल्ल' आदेश; १-१० से 'सु' में स्थित 'उ' का आगे स्थित 'उल्ल' का 'उ' होने से लाप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मंसुल्लो रूप सिद्ध हो जाता है। दर्पवान संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप दापुल्लो होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-७६ से 'र' को लोप; २-८४ से लोप हुए. 'र' के पात्र शेष बचे हुए 'प' को द्वित्व 'प' की प्राप्ति; २-१५E से 'वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान् के स्थान पर प्राकृत में 'उल्ल' आदेश; १-१० से 'प' में स्थित 'अ' स्वर का आगे 'उल्ल' प्रत्यय का 'उ' होने से लोप; १-५ से हलन्त व्यञ्जन द्वितीय 'प' में आगे रहे हुए 'उल्ल' प्रत्यय के 'उ' को संधि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वप्पुल्लो रूप सिद्ध हो जाता है। शब्दवान संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप सदालो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; २-3 से हलन्त व्यजन 'ब' का लोप २-८६ से 'द' को द्वित्व की प्राप्ति; २-१५६ से 'वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान् के स्थान पर प्राकृत में 'आल' आदेश; १-५ से 'ह' में स्थित 'अ' स्वर के साथ प्रति 'पाल' प्रत्यय में स्थित 'आ' स्वर को संधि और ३.२ से प्रथमा
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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