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________________ १८६] * प्राकृत व्याकरण * २-८८ से 'द' को द्वित्व 'दु' की प्राप्तिा -२६२ से 'श' को 'ह' की प्राप्ति' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप बोहो सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप 'चउरहों में सूत्र संख्या ५-१७७ से 'स' का लोप; और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप घउदहो भी सिद्ध हो जाता है। चतुर्दशी संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप चोदसी और चपदसी होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१७१ से आदि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'तु' व्यक-जन के स्थान पर अर्थात् 'अतु' शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'श्री' की प्राप्ति; २-४६. से 'र' का लोप; २८६ से 'द' को द्वित्व 'द' की प्राप्ति; १-२६० से 'श् का 'स्' और ३-३१ से संस्कृत के मूल-शब्द चतुर्दश के प्राकृत रूप चौदस में स्त्री लिंग वाचक स्थिति में 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप चोदसी सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप रउद्दसी में सूत्र संख्या १-१४७ से 'तू' का लोप और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप पाहसी भी सिद्ध हो जाता है। चतारः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप चोब्बारो और चजव्वारी होते हैं। इसके प्रथम रूप घोबारी में सूत्र संख्या १-१७१ से श्रादि स्वर 'अ सहित परवर्ती स्वर सहित 'तु' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'अतु' शब्नांश के स्थान पर वैकल्पि रूप से 'श्रो' की प्राप्ति; २-४ से 'र' का लोप; २.८ से '' को द्वित्व 'व्वु' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर चोखारो रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप चउव्यारो में सूत्र संख्या १-१७७ से 'न' का लोप और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप घउधारो मी सिद्ध हो जाता है। मुकमारः संस्कृत विशेषण रूप है । इसके प्राकृत रूप सोमालो और सुकुमालो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप सोमालो में सूत्र संख्या १-१७१ से आदि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'फु' व्याजन के स्थान पर अर्थात् 'जकु' शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'श्री' की प्राप्ति; १-२५४ से 'र' को 'ल' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप सोमाली सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप सुकुमालो में सूत्र संख्या १-२५४ से 'र' को 'ल' की प्राप्ति' और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप सुझुमालो भी सिद्ध हो जाता है। कुतूहलम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप कोहल और कोहल्लं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप कोहलं में सूत्र संख्या १-१७१ से आदि स्वर '' सहित परवर्ती स्वर सहित 'तू' अन्जन
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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