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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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द्वितीय रूप (i) में सूत्र संख्या १-१४८ से 'ऐ' की 'ए' २१०७ से 'य' के पूर्व में 'इ' का आगम; ९-१७७ से म्' और 'य' का लोप; ३२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुसार होकर
भी सिद्ध हो जाता हैं ।
चैत्य वन्दनम् संस्कृत रूप है। इसका श्रार्ष- प्राकृत में ची-बन्दणं रूप भी होता है। इसमें सूत्र संख्या १.१५१ की वृति से आर्ष-राष्ट से 'चैत्य' के स्थान पर 'वी' का आदेश १-२२८ से 'न' का 'ख' ३-०५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १- ३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर ची वन्दणं आर्ष-रूप सिद्ध हो जाना है । । - १५१ ।।
रादौ वा ॥
१-१५२ ॥
वैरादिपु ऐः
देश
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हरे | कइलासो कैलासो | कहरवं रवं । इसवणी वेसत्रणो | वहसम्पारण सम्यायो । वइयालियो वैचालियो । वद्दसि बेसिनं । चेती || वर | कैलास | कैरव | श्रवण | वैशम्पायन । वैतालिक । वशिक । चैत्र । इत्यादि ।
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अर्थ:- र, कैलाम, कैरव, वैश्रवण, वैशम्पायन, वैतालिक, वैशिक और चैत्र इत्यादि शब्दों में रही हुई ऐ के स्थान पर विकल्प से 'अ' आदेश भी होता है। आदेश के अभाव में शब्द के द्वितीय रूप में 'ऐ' के स्थान पर 'ए' भी होता है । जैसे - वैरम्वइरं और बेरं । कैलामः कइलामो और लामो कैरवम् = कइरवं और केरवं । वैश्रवणः = वइसवणो और वेसवसो | वैशम्पायनः = बहसम्पायशो और वेसस्यायो । वैतालिकः वालिओ और बेलिओ | वैशिकम् = वसि और वसिचं । चैत्रः = हत्ती और चेत्तो ॥ इत्यादि ॥
वह रूप की मिद्ध सूत्र संख्या १-६ में की गई हैं।
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वैरम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वेरं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१४८ से ऐ का ''; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नप सक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर वैरं रूप सिद्ध हो जाता है।
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कैलासः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप कलासो और केलासी होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१५२ से 'ऐ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'इ' का आदेश; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कइलासो रूप सिद्ध हो जाता है ।
द्वितीय रूप कला की सिद्धि सूत्र संख्या १-१४म में की गई है।