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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित.
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के स्थान पर 'भो' की प्राप्ति; २-४७ से 'क' का लोप; २-१५ से संयुक्त व्यजन 'त्र' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति और २-८६ से प्राप्त 'च' को द्वित्व 'च्च' की प्राप्ति होकर भोच्चा हप सिद्ध हो जाता है।
ज्ञात्या संस्कृत कृन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप णचा होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-८४ में प्रादि 'श्रा' को हस्त्र 'श्र' की प्राप्ति; २-४२ से 'ज्ञ' को 'ण' की प्राप्ति; २-१५ से संयुक्त व्याजन 'स्व' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति और २-८६ से प्राप्त 'च' को द्वित्व 'कव' की प्राप्ति होकर णच्या रूप सिद्ध हो जाता है।
श्रया संस्कृत कृदन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप सोच्चा होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७६ से र का लोप; १-६० से शेष 'श' का 'त'; १-११६ से 'इ' के स्थान पर 'श्री' की प्राप्ति; २-१५ से संयुक्त व्यन्जन 'त्व के स्थान पर 'च' की प्राप्ति और २-८६ से प्राप्त 'च' को द्वित्व 'च' की प्राप्ति होकर सोच्चा रूप सिद्ध हो जाता है।
पिछी रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२८४ में की गई है।
विद्वान् संस्कृत प्रथमान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप विज्जो होता है । इसमें सूत्र संख्या १८४ से दीर्घ स्वर 'श्रा' को इस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-१५ से 'द' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति, २-८१ प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज' की प्राप्ति; ९-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति फे एक वचन में प्रकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विज्जो रूप सिद्ध हो जाता है।
बुद्धषा संस्कृत कृदन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप है बुझा होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-० से 'दु' का लोप; २.१५ से 'ध्व' के स्थान पर 'झ' की प्राप्ति; २.८६ से प्राप्त 'झ' को द्वित्व 'झझ' की प्राप्ति और २.६० से प्राप्त पूर्व 'म' को 'ज् होकर खुज्झा रूप सिद्ध हो जाता है।
भोचा रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है।
सकलम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप सयलं होता है । इसमें सूत्र संख्या १.१७. से 'क' का लोपः १-५८० से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३.२५ से प्रयमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सयलं रूप सिद्ध हो जाता है।
पृथ्वीम संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पिच्छि होता है । पिच्छि रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१२८ में की गई है। विशेष इस रूप में सूत्र संख्या ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एक वचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म् का अनुस्वार होकर पिच्छि रूप सिद्ध हो जाता है।
विधाम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप विजं होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-३६ से 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति २-२४ से '' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-८८ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ज'