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________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * स्मातः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप एहाओं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७५ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'एह आदेश की प्राप्ति; १-१७७ से त का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पहाओ रूप सिद्ध हो जाता है । मस्तुतः संस्कृत विशेषण रूप है। इस का प्राकृत रूप पराष्टुश्री होता है। इस में बूत्र-संख्या .. से 'एका लोप; २-४५ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्न के स्थानपर 'ए आदेश की प्राप्ति; १-१४७ से 'त का लोप और ३- से प्रथमा विभक्ति के एफ बचन में अकारान्त पुल्लिग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पण्डओ रूप सिद्ध हो जाता है। वह्निः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वराहो होता है । इस में सूत्र संख्या २-७५ से संयुक्त व्यञ्जन 'ह' के स्थान पर 'राह' श्रादेश की प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति हो कर वही रूप सिद्ध हो जाता है। जहनुः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप जराहू होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७५ से संयुक्त व्यञ्जन 'हन' के स्थान पर 'एह' श्रादेश की प्राप्ति; और ३.१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर जए : रूप सिद्ध हो जाता है। पुच्चरही रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १.६७ में की गई है। अपराहणः संस्कृत रूप है । इस का प्राकृत रूप अवरणही होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' का 'व'; १-८४ से दीर्घ स्वर 'श्रा' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; .५ से संयुक्त व्यञ्जन 'हण' के स्थान पर यह आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'यो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अपरण्ही रूप की सिद्धि हो जाती है। श्लक्ष्णम् संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप सरह होता है। इस में सूत्र संख्या २-७४ से 'ल' का लोप; १-२६० से 'श' का 'म'; २.७५ से संयुक्त व्य जन 'क्ष्ण के स्थान पर 'एह आदेश की प्राप्तिः ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंमक लिंग में 'सि' पत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १- २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर साह रूप सिद्ध हो जाता है। तीक्ष्णम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप तिरह होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से दीघ स्वर 'ई' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'ई' की प्राप्ति; २-७५ से संयुक्त व्याजन 'दण' के स्थान पर रह श्रादेश की प्राप्ति, ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्रकारान्त नपुसकलिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर निण्ह रूप सिद्ध हो जाता है। 79.51
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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