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________________ સરસ્વતિબહેન મલાલ શાહ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * ३७७ अथवा सराणा ।। किसी किमी शब्द में स्थित 'न' व्यश्चन में सम्मिलित 'ब' व्यञ्जन का लोप नहीं होता है । जैसे:-विज्ञानं विणणाणं । इस उदाहरण में स्थित संयुक्त जन 'ज्ञ' की परिणात अन्य नियमानुसार 'ण' में हो गई है। किन्तु सूत्र-मंख्या २.८२ के अनुसार लोप अवस्था नहीं प्राप्त हुई है ।। ज्ञानम् संस्कृत रूप है । इस के प्राकृत-रूप जाणं और णाणं होते हैं। इन में से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-८३ से मयुक्त व्यञ्जन 'ज्ञ' में स्थित 'ब' व्यञ्ज न का लोप; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३–२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-३ से प्राप्त म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप जाणं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप णाणं की सिद्धि सूत्र संख्या २.४ में की गई है। सबज्जो और सम्बएणू दोनों रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या १.५६ में की है। आत्मज्ञः संस्कृत विशेषण रूप है । इसके प्राकृत रूप अप्पज्जो और अप्परगू होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या ५-६ से वीर्य । “अः के २६ र असम स्मा' की प्राप्ति; २५१ से मंयुक्त व्यञ्जन 'त्म' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति; २-८८ से 'प' को द्वित्व 'प' की प्राप्ति, २-८३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ज्ञ' में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'प' का लोप; २.८६ से 'ज्ञ' में स्थित ब' का लोप होने के पश्चात् शेष 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि प्रत्यय कस्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप अप्पज्जी सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप (आत्मन्त्रः = ) श्रप्पएणू में सूत्र-संख्या १-८४ से दीघ स्वर 'श्रा' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; ५-५१ से मंयुक्त व्यञ्जन 'स्म' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति; २-८८ से प्राप्त 'प' को द्वित्व 'प' की प्राप्ति; -४२ से 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण की प्राप्ति; २.८६ में प्राप्त' रण' को द्वित्व 'एण की प्राप्ति; ५-५६ से प्राप्त 'ण' में स्थित 'श्र" स्वर के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'उ को प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में उकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर '3' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप अप्पण्णू भी सिद्ध हो जाता है । दैवज्ञः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप दइवन्नों और दइवएगू होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' श्रादेश की प्राप्ति; ८३ से संयुक्त व्यसन 'ज्ञ' में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'म' का लोप; २-० से 'ज्ञ' में स्थित 'म्' के लोप होने के पश्चात् शेष 'ज' को द्वित्व 'ज' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दइयजो रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीयरूप- ( दैवज्ञः-) दइवणरणू में सूत्र-संख्या १-१५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' प्रादेश की प्राप्ति २-४२ से 'ज्ञ' के स्थान पर '' को प्रामि; २-८६ से प्राप्त 'ण' को द्वित्व 'एण' की प्राप्रि; १ .५६ से प्राप्त 'ण' में स्थित 'अ' स्वर के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' को प्राप्ति; और ३-1 से प्रथमा विभक्ति के
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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