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________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [१६७ | के एक वचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म् का अनुस्वार होकर रयर्य रूप सिद्ध हो जाता है। प्रजापतिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रुप पयावई होता है। इसमें सत्र-संख्या २-७ से'र' का फा लोप: १-१७७ से 'ज' और 'त' का लोप; १-१८० से लुप्त 'ज्' के अवशिष्ट 'श्रा' को 'या' की प्राप्ति १-०३१ से द्वितीय 'प' को 'व' की प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में इस्त्र ईकारांत पुल्लिग में सि प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर'ई' की प्राप्ति होकर पयावई रुप सिद्ध हो जाता है। गजा संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप गो होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'ज का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गओ रूप सिब हो जाता है। वितानम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप विप्राणं होता है । इस में सूत्र संख्या १-१७७ से '' का लोप; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुसक जिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर निमार्ण रूप सिद्ध हो जाता है। रसातलम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप रसायलं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त् का लोप; १.१८० से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विमक्ति के एक वचन में नपुंसक लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर रसायलं सिद्ध हो जाता है। यतिः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप जई होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' का 'ज'; १-१७७ से 'त' का लोप; ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में इकारान्त पुल्लिग में सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हब स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर जई रूप सिद्ध हो जाता है। गड़ा संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप गया होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'द' का लोप; १-१८० से शेष 'आ' को 'या' की प्राप्ति, संस्कृत विधान के अनुस्वार प्रथमा विभक्ति के एक वचन में श्राकारान्त स्त्री लिंग में प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' की इत्संज्ञा और १-११ से शेष अन्त्य 'स' का लोप होकर गया रूप सिद्ध हो जाता है । मड़ना सस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप मयणो होता है। इसमें सूत्र संख्या १.१७७ से 'द्' का लोप; १-१८० से शेष 'श्र' को 'य' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' का 'ए' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मयपो रूप सिद्ध हो जाता है।
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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