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________________ T [ ३६१ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित प्रत्यय की प्राप्ति और २३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर चम्भरे रूप सिद्ध हो जाता है। श्लेष्मा संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सिम्भो होता है। इसमें सूत्र संख्या २७६ से 'ल' का लीप १०६० से 'श' का 'स' १८४ से दीर्घ स्वर ( अ + इ = ए के स्थान पर हम्य स्वर 'इ' की प्राप्तिः २०७४ को वृत्ति से संयुक्त व्यञ्जन ष्म के स्थान पर म्भ' आदेश की प्राप्ति १-११ से संस्कृत मूल शब्द 'श्लेष्मन् ' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जत 'न्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन कारान्त पुल्लिंग में ( प्राप्त रूप सिम्भ में ) - 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर सिम्भों रूप सिद्ध हो जाता है। रश्मी रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-३५ में की गई है ! । स्मरः संस्कृत रूप हैं । इसका प्राकृत रूप सरी होता है। इसमें सूत्र संख्या २७ से 'म्' का लोप और २-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सरो रूप सिद्ध हो जाता है || २-७४|| सूक्ष्म-श्न-ग- स्न-हन- ह प णां रहः ॥२-७५॥ सूक्ष्म शब्द संबन्धिनः संयुकां च गकाराक्रान्तो इकार श्रादेशो भवति ॥ सूक्ष्मं | सहं ॥ श्न परहो । सिन्हो || ६ | विष्हू | जिल्हू | कहो । उहीसं ॥ स्न | जोहा | पहा | पहुश्रो ॥ ह्न । वराही । जराहू || छ | पुत्रहो | अवरो ॥ चण | सहं | तिरहं ॥ विप्रकर्षे तु कृष्ण कृत्स्न शब्दयोः कसणी | कर्मिणो || I के स्थान पर 'सु' सहित 'ह' का से जिन संस्कृत शब्दों में संयुक्त ऐसे संयुक्त व्यञ्जनों के स्थान पर उदाहरण:- प्रश्नः - परहो । शिश्नः = अर्थ:-संस्कृत शब्द 'सूक्ष्म में रहे हुए मंयुक्त व्यञ्जन 'दम' अर्थात् 'यह' का आदेश होता हैं । जैसे:- सूदनम् = सरहं | इस प्रकार व्यञ्जन 'श्न', 'ष्ण', 'श्न'; 'ह', 'हूण' अथवा 'दण' रहे हुए होते हैं; 'ण' सहित 'ह' का अर्थात 'यह' का आदेश होता है। जैसे—'श्न' के सिहो || 'ण' के उदाहरण: -- विष्णुः विरहू । जिष्णुः = जिहू । कृष्णः कहा। उष्णीषम् = उहीसं || 'न' के उदाहरणः – ज्योत्स्ना=जोरहा । स्नातः हाओ । प्रस्तुतः = पहुओ | 'ह' के उदाहरण: - बहि नः बरही जह्नुः=जहू ।। 'ह्ग्' के उदाहरण: - पूर्वाहः = पुव्वो । अपराह्न ए =अवरहो । '६' के उदाहरणश्लक्ष्णम् = सरहं । तीक्ष्णम् = तिर || संस्कृत भाषा में कुछ शब्द ऐसे भी हैं जिनमें संयुक्त व्यञ्जन 'ष्ण' अथवा 'स्त' रहा हुआ हो; तो भो प्राकृत रूपान्तर में ऐसे संयुक्त व्यञ्जन 'ए' अथवा 'रन' के स्थान पर इस सूत्र संख्या २२७५ से प्राप्तव्य 'यह' आदेश की प्राप्ति नहीं होती है। इस का कारण प्राकृत रूप का उच्चारण करते समय 'विप्रकर्ष' स्थिति है । याकरण में 'विप्रकर्ष' स्थिति उसे कहते हैं; जब कि शब्दों का उच्चारण करते समय अक्षरों के मध्य में 'अ' अथवा 'इ' अथवा 'उ' स्वरों में से किसी एक स्वर कर 'आगम हो जाता
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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